Saturday, 21 August 2021

ओलंपिक और भारत

 ओलंपिक का आग़ाज़ हुआ मीराबाई चानू के रजत पदक से और समापन हुआ नीरज चोपड़ा के स्वर्ण पदक के साथ। इसी बीच भारतीय महिला और पुरुष हॉकी टीमों ने चौंकाने वाला प्रदर्शन करते हुए भारतीय हॉकी के स्वर्णिम इतिहास की यादें ताज़ा कर दीं। भारतीय हॉकी टीम हॉकी के ओलंपिक इतिहास की सफलतम टीम मानी जाती है जिसके नाम हॉकी में सर्वाधिक 11पदक जीतने का रिकॉर्ड दर्ज है जो अब 12 हो चुके हैं।  वर्ष1980 तक ओलंपिक में लगातार 8स्वर्ण पदक जीतने का रिकॉर्ड भी भारतीय हॉकी टीम ने ही बनाया है और अभी भी ये किसी भी टीम द्वारा ओलंपिक में जीते गए सर्वाधिक स्वर्ण पदकों की संख्या है। लेकिन इसके बाद जब हॉकी घास के मैदान से एस्ट्रो-टर्फ पिच पर आई तो भारतीय हॉकी की रफ़्तार सुस्त पड़ गयी और रही-सही क़सर 1983 के क्रिकेट विश्व-कप में भारत की अप्रत्याशित विजय ने पूरी कर दी। इसके बाद भारत में क्रिकेट का बुख़ार कुछ ऐसा चढ़ा कि इस विदेशी खेल के आगे भारत के राष्ट्रीय खेल की चमक फ़ीकी पड़ने लगी। वैसे भी 80के दशक से पाश्चात्य संस्कृति ने भारत में हर क्षेत्र में अपने पैर पसारना शुरू कर दिया था। व्यक्तिगत रूप से मुझे हमेशा लगता है कि उस दौर की सरकारों के वामपंथी झुकाव ने भारतीय संस्कृति को सबसे अधिक नुकसान पहुंचाया है। उस समय सुनियोजित तरीके से भारतीयों के मन में अपनी भारतीय पहचान के प्रति हीन-भावना भर दी गयी। बड़ी ही चालाकी से ये भ्रामक विचार फ़ैलाया गया कि हर विदेशी चीज़ हमसे श्रेष्ठ है चाहे वो उनकी भाषा हो, रहन-सहन या रीति-रिवाज़,पहनावा या खान-पान, नृत्य-संगीत यहाँ तक कि खेल भी। यही वजह थी कि हम पुरातन भारतीय जीवन-शैली से दूर होकर पाश्चात्य तौर-तरीक़ो की नक़ल करने लगे। हम अपनी भाषा से दूर हुए, सनातन धर्म और संस्कृति से दूर हुए, योग और आयुर्वेद से दूर हुए, हम हॉकी और कबड्डी जैसे देसी खेलों से भी दूर होते गए। बहरहाल, क्रिकेट प्रेमी इस देश ने इस बार के ओलंपिक में अब तक का अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन दिया है और विभिन्न खेलों में अपनी हैरतअंगेज आमद दर्ज कराई है। हैरानी की बात है कि सबसे अधिक आबादी वाले इस देश ने 1980 के ओलंपिक में हॉकी के अंतिम स्वर्ण पदक के बाद 1996 तक ओलंपिक में कोई पदक नहीं जीता। 1996के अटलांटा ओलंपिक में लिएंडर पेस ने टेनिस में कांस्य जीतकर 16साल का ये लंबा इंतज़ार ख़त्म किया जो भारत का ओलंपिक में पहला व्यक्तिगत पदक भी था। ज़ाहिर है वोट बैंक के लिहाज़ से खेल उस समय की सरकारों की प्राथमिकता सूची से बाहर रहे होंगे इसीलिए भारत के राष्ट्रीय खेल के पुनरुत्थान के लिए कोई प्रयास नहीं किये गए। खेल के प्रति पिछली सरकारों की बेरुख़ी का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि कई अंतरराष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिताओं में भारतीय खिलाड़ियों को फ़िज़ियोथेरेपिस्ट की सेवायें तक मुहैया नहीं कराई गयीं। तकनीकी कारणों के अलावा खिलाड़ियों के चयन में हावी होती राजनीति भी भारतीय हॉकी के पतन का मुख्य कारण बनी। ज़ाहिर है जिस दौर में देश में राजनीतिक भ्रष्टाचार और मनमानी अपने चरम पर थे तो खेल भी उससे अछूते कैसे रहते! 

इससे उलट इस बार के भारतीय ओलंपिक दल की तैयारियों और उन्हें मिली सुविधाओं को देखकर खेल विशेषज्ञों का अनुमान था कि भारत इस ओलंपिक में अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करेगा और वही हुआ भी। सरकार की तरफ़ से खिलाड़ियों की किट,विदेशी कोच, खान-पान और अन्य सुविधाओं को मिलाकर हर एक खिलाड़ी पर करोड़ों रुपये ख़र्च किये गए हैं। हॉकी टीम में इस बार सीधे कोच को खिलाड़ियों को चुनने की ज़िम्मेदारी दी गयी जिसका नतीजा हम सबके सामने है। पूरे ओलंपिक के दौरान हमारे प्रधानमंत्री हर निर्णायक मैच से पहले स्वयं फ़ोन करके खिलाड़ियों का उत्साहवर्धन करते रहे एवं उन्होंने न सिर्फ़ पदक विजेताओं को बधाई दी बल्कि हारने वालों की भी हौसला अफजाई की। भारतीय ओलंपिक दल के सभी खिलाड़ियों का कहना था कि प्रधानमंत्री जी का स्वयं इस प्रतियोगिता में इतनी रुचि लेना उन्हें अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने के लिए प्रेरित करता था।
पदक विजेताओं से इतर इस बार के ओलंपिक में ये भी ख़ास रहा कि हमारे कई खिलाड़ी सिर्फ़ कांस्य पदक से चूके हैं या क्वार्टर फाइनल में बाहर हुए हैं वो भी ऐसे खेलों में जिनमें भारत का अभी तक कोई वजूद नहीं था जैसे कि गोल्फ़ में अदिति अशोक का उम्दा प्रदर्शन। इसका मतलब है कि 200से भी ज़्यादा देशों के खिलाड़ियों के बीच कई खेलों में भारतीय खिलाड़ियों ने टॉप5 में जगह बनाई। किसी भी प्रतियोगिता में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपने देश का प्रतिनिधित्व करना ही बहुत सम्मान की बात है इसीलिए हम भारतीय क्रिकेटरों की उपलब्धियों को भी कमतर नहीं आंक सकते। भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड दुनिया की सबसे संपन्न क्रिकेट संस्था है जिसने ये मुक़ाम अपने बेहतरीन खिलाड़ियों के दम पर ही पाया है। अंग्रेज़ों के इस खेल में हमने उन्हें कई बार उनकी ही ज़मीन पर पटखनी भी दी है। भारतीय क्रिकेट की धाक का अंदाज़ा आईपीएल जैसी प्रतियोगिताओं से लगाया जा सकता है जिनमें पैसा पानी की तरह बहाया जाता है और खिलाड़ियों की महंगी बोली लगाई जाती है, इस आयोजन में दुनिया भर के खिलाड़ी भारत की अलग अलग टीमों के लिए आकर खेलते हैं जो भारतीय क्रिकेट के लिए गर्व की बात है। क्रिकेट की पृष्ठभूमि पर बनी भारतीय फ़िल्म लगान ऑस्कर पुरस्कार में सर्वोत्तम 5फ़िल्मो की दौड़ में काफ़ी आगे थी,लेकिन ज़ाहिर है कि गोरों के अत्याचारों और उनके ही खेल में भारतीयों की जीत का जश्न मनाती इस फ़िल्म को विदेशियों द्वारा आयोजित और प्रायोजित पुरुस्कार समारोह में विजेता कैसे घोषित किया जा सकता था!
हर चीज़ में नकारात्मकता खोज लेने वाले लोग हमारे 7पदकों की तुलना अमेरिका के 113पदकों से करके हमारी जीत को बहुत छोटा बता रहे हैं लेकिन इन्हीं लोगों ने अपने ख़ुद के बच्चों को कभी किसी खेल में कैरियर बनाने के लिए प्रोत्साहित नहीं किया होगा! क्योंकि जिस देश में "खेलोगे-कूदोगे बनोगे ख़राब और पढ़ोगे-लिखोगे बनोगे नवाब" जैसी कहावतें प्रचलित हों और जहाँ सरकारी नौकरी हासिल करने को जीवन की सर्वोच्च सफ़लता समझा जाता हो वहाँ किसी भी माता-पिता से अपने बच्चों को खेल के क्षेत्र में बढ़ावा देने की उम्मीद रखना बेमानी है। कुछ हद तक माँ-बाप का सोचना सही भी है क्योंकि हमारे देश में अभी तक खेलों के लिए पर्याप्त संसाधन उपलब्ध नहीं थे और एक ग़रीब एवं विकासशील देश होने के नाते हमारे यहाँ लोगों का जीवन-स्तर विकसित देशों जितना उन्नत नहीं है। हमारे देश में ज़्यादातर किशोरों और युवाओं पर छोटी उम्र से ही परिवार के भरण-पोषण की ज़िम्मेदारी आ जाती है जिसे एक सुरक्षित और पक्की नौकरी के द्वारा ही निभाया जा सकता है। अमेरिका, ब्रिटेन, रूस या जापान जैसे विकसित देशों में बचपन से ही खेलों के प्रति बच्चों को जागरूक किया जाता है, वैसे पुराने समय से ही इन देशों की नीति खेलों के इस महाकुंभ में अपना परचम फ़हराने की रही है; ये इनका हर क्षेत्र में दुनिया पर अपना दबदबा क़ायम करने की रणनीति का हिस्सा रहा है। लेकिन हमें ये भी नहीं भूलना चाहिए कि भारत में पढ़ाई-लिखाई को अधिक महत्व दिए जाने के कारण ही आज भारत के आईटी प्रोफेशनल दुनिया भर में अपनी धाक जमाये हुए हैं, विश्व की टॉप टेक्नोलॉजी कंपनियों में भारत के लोग उच्च पदों पर आसीन हैं। कहने का सार यही है कि हर देश और वहाँ के लोगों की अपनी एक ख़ास सोच और विशेषता होती है जिसकी दूसरे देश और वहाँ के नागरिकों से तुलना नहीं की जा सकती। साथ ही हमें भी अपने बच्चों को भेड़चाल में शामिल कराने की जगह वो करने देना चाहिए जिसमें उनकी रुचि हो, अगर ऐसा होगा तो हमारे देश से भी सरकारी नौकरों के बजाय विभिन्न क्षेत्रों में महारत रखने वाले प्रतिभाशाली लोग निकलेंगे।
-सोनल"होशंगाबादी"

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