Friday, 21 August 2020

जनता की अदालत

 "सिंहासन ख़ाली करो कि जनता आती है" राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की ये पंक्तियां हर दौर में प्रासंगिक रही हैं लेकिन आज सोशल मीडिया के दौर में ऐसा लग रहा है जैसे इन पंक्तियों में प्राण आ गए हों l जैसे हर सिक्के के दो पहलु होते हैं ठीक वैसे ही सोशल मीडिया के भी अपने नफ़े-नुकसान हैं l जैसा कि हमारे शास्त्रों में कहा गया है कि "अति सर्वत्र वर्जयेत" इसी तर्ज़ पर सोशल मीडिया का भी आवश्यकता से अधिक उपयोग हमारी व्यक्तिगत सेहत के लिए हानिकारक  है लेकिन इसके विपरीत यदि सोशल मीडिया का सावधानी-पूर्वक और समझदारी से उपयोग किया जाये तो ये समाज में क्रांतिकारी बदलाव भी ला सकता है जो हाल की कई घटनाओं में हमने देखा भी है l इसमें सबसे ताज़ातरीन घटनाक्रम है फ़िल्म अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की संदिग्ध मृत्यु का.... इस दुखद घटना के बाद उमड़े जन-सैलाब ने अब सुनामी का रूप ले लिया है जो संभवतः अपने साथ महाराष्ट्र सरकार को भी उखाड़कर बहा ले जाएगा l 

ग़ौरतलब है कि प्रतिभावान कलाकार सुशांत सिंह 14 जून को मुंबई स्थित अपने घर में मृत पाए गए थे; जिसके बाद मुंबई पुलिस ने मौक़ा-ए-वारदात पर पहुंचकर महज़ आधे घंटे के भीतर ही इसे आत्महत्या क़रार दे दिया l इसके बाद मुंबई पुलिस ने इसे मानसिक अवसाद से जोड़कर एक निहायती कमज़ोर स्क्रिप्ट तैयार की जिसकी थीम थी भाई-भतीजावाद और जिसके खलनायक थे बॉलीवुड के कुछ तथाकथित बड़े फ़िल्म निर्माता l इसके बाद बिना कोई एफ़आईआर दर्ज किये मुंबई पुलिस ने लगभग 2 महीने तक फ़िल्म इंडस्ट्री से जुड़े 56 लोगों से अनौपचारिक पूछताछ की या यों कहें कि चाय पर चर्चा की l  सुशांत की मौत के ठीक 1 हफ़्ता पहले सुशांत और कई बॉलीवुड कलाकारों की मैनेजर रह चुकी दिशा सलियान नाम की एक युवती की एक बिल्डिंग की 14 वीं मंज़िल से गिरने के कारण मृत्यु हो गयी थी और उसे भी मुंबई पुलिस ने अपनी अलौकिक शक्ति का प्रयोग करते हुए आत्महत्या का मामला ही क़रार दिया था l  इसी तरह 90 के दशक की टॉप अदाकारा दिव्या भारती की रहस्यमयी परिस्थितियों में हुई मौत को भी दुर्घटना घोषित कर दिया गया था l दिव्या भारती की मौत को लेकर आज भी लोगों के मन में सवाल हैं लेकिन उस समय उन सवालों को रखने का कोई आसान और मज़बूत ज़रिया उपलब्ध न होने की वजह से उस केस को भी दबा दिया गया l  

सुशांत केस में भी मुंबई पुलिस को आत्महत्या वाली अपनी इस लचर पटकथा पर पूरा भरोसा था, लेकिन इस बार जनता आत्महत्या की इस मनगढ़ंत कहानी को मानने के लिए तैयार नहीं हुई और पहले दिन से ही लोग सोशल मीडिया पर सुशांत की हत्या की आशंका जताने लगे l  इसके बाद जो हुआ वो अप्रत्याशित था जब आम जनता ने एक हाई-प्रोफाइल केस में पुलिस की जांच को नकारते हुए ख़ुद इस मर्डर मिस्ट्री की तह तक जाने का निश्चय किया और लोग स्वयं अपने-अपने स्तर पर इस केस से जुड़े सबूत और गवाह ढूँढकर लाने लगे l ज़ाहिर है कि ये लोग घटना-स्थल पर नहीं जा सकते थे लेकिन मौत के दिन मीडिया चैनलों पर दिखाई जा रही फुटेज और सुशांत के शव के वायरल हुए फ़ोटोज़ के आधार पर ही इन लोगों ने इस केस का बारीकी से अध्ययन करना शुरु कर दिया l जो साक्ष्य मुंबई पुलिस 2 महीने में भी नहीं ढूंढ पाई या यों कहें कि जान-बुझकर नज़रअंदाज़ करती रही, जिन कड़ियों को पुलिस एक राजनीतिक दबाव के चलते नहीं जोड़ पाई, इस केस से जुड़े इन तमाम बिंदुओं को लेकर पहले दिन से ही सोशल मीडिया पर क़यास लगाए जा रहे थे l सुशांत की मौत के कुछ दिन बाद तो मीडिया चैनलों ने भी इस मामले को कवरेज देना कम कर दिया था लेकिन सुशांत के प्रशंसक लगातार इस केस से जुड़े रहे और इस मामले से जुडी अहम जानकारियां सोशल मीडिया पर साझा करते रहे l धीरे-धीरे लोगों की भावनाएं एक जन-आंदोलन में तब्दील हो गयीं जिसका सबसे बड़ा मंच बना सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म l ट्विटर, फेसबुक और यूट्यूब पर सुशांत को इंसाफ़ दिलाने के लिए  #JusticeForSSR और #WarriorsForSSR जैसे हैशटैग की बाढ़ आ गयी जिसके बाद कई नामी वकील, बड़े नेता और मीडिया चैनल भी इस मुहिम के समर्थन में उतर आए l ये शायद भारत ही नहीं संपूर्ण विश्व के इतिहास में पहली बार घटित हुआ है जब सोशल मीडिया पर चले किसी आंदोलन ने इतना व्यापक और सकारात्मक प्रभाव छोड़ा है जो केवल एक राज्य या देश तक सीमित नहीं रहा बल्कि दुनिया भर के करोड़ों लोग इसमें शामिल हो चुके हैं l 

ऐसा ही व्यापक जन-आंदोलन हमें साल 2012 में दिल्ली में हुए निर्भया कांड के बाद देखने को मिला था जिससे व्यथित होकर पूरे देश का खून खौल उठा था और सरकार को जुवेनाइल एक्ट में संशोधन करना पड़ा l इतिहास गवाह है कि जनता ने जब-जब संगठित होकर कुछ करने की ठानी है तो समाज में परिवर्तन आया है; बड़े-से-बड़े साम्राज्यों को भी जन-क्रांति के आगे झुकना पड़ा है चाहे वो भारत का स्वाधीनता संग्राम हो, दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के विरुद्ध आंदोलन हो या 70 के दशक का चिपको आंदोलन l इनमें चिपको आंदोलन का तरीका बड़ा ही दिलचस्प था जिसके तहत उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र में सरकार द्वारा तेज़ी से काटे जा रहे जंगलों को बचाने के लिए वहां की सैंकड़ों स्थानीय महिलाएं पेड़ों से चिपककर खड़ी हो गयीं, जिनके दबाव में तत्कालीन इंदिरा गाँधी सरकार को पेड़ों की कटाई का अपना फ़ैसला वापिस लेना पड़ा था l चिपको आंदोलन का उल्लेख हमें सदियों पहले सन 1730 में भी मिलता है जब राजस्थान के एक गाँव में पेड़ों को बचाने के लिए बिश्नोई समाज के सैंकड़ों लोगों ने अपनी जान दे दी थी l  चिपको आंदोलन महात्मा गांधीजी के सत्याग्रह आंदोलन से प्रेरित है; गांधीजी ने अपने हर आंदोलन में जनता से समर्थन माँगा चाहे वो असहयोग आंदोलन में जनता से अंग्रेज़ी हुकूमत को सहयोग न करने की अपील हो, सत्याग्रह आंदोलन में क़ानून तोड़कर गिरफ़्तारी देने की सिफ़ारिश हो या स्वदेशी आंदोलन में विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार कर स्वदेशी अपनाने की बात हो l  गांधीजी आम जनता की शक्ति से वाकिफ़ थे जो हमारी स्वाधीनता का आधार-स्तंभ बनी l 

हम जानते हैं कि आज़ादी के कुछ वर्षों पश्चात् ही हमारे देश में सरकारी भ्रष्टाचार ने अपने पैर पसारने शुरू कर दिए थे जिसका विरोध करने वालों को बलपूर्वक दबाने के लिए ही एक तानाशाही फ़ैसला सुनाते हुए तत्कालीन महिला प्रधानमंत्री ने आपातकाल लागू कर दिया था जो 21 महीने लंबा चला l  लगभग 2 वर्ष तक चले इस कालखंड में नागरिकों के समस्त मौलिक अधिकार समाप्त कर दिए गए थे एवं प्रेस और न्यायपालिका की स्वायत्ता भी छीन ली गयी थी l इंटरनेट युग से पहले की सरकारें काफ़ी भाग्यशाली थीं क्योंकि उन सरकारों की कारगुज़ारियाँ अरसे तक आम जनता से छुपी रहीं; इनके भ्रष्टाचार अधिकतर मामलों में विपक्षी दल की  सरकार बनने के बाद ही उजागर होते थे जब इनके ख़िलाफ़ केंद्रीय जांच एजेंसियां प्रकरण दर्ज करती थीं l आज़ादी के बाद बने शैक्षणिक पाठ्यक्रम में भी इतिहास को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत किया गया, तुष्टिकरण की राजनीति को साधने के लिए बड़े ही सुनियोजित तरीके से सांस्कृतिक अतिक्रमण किया गया l केवल एक राजनीतिक परिवार को लाभ पहुँचाने के लिए तुगलकी फ़रमान धड़ल्ले से बेरोकटोक जारी होते रहे, क्योंकि तब संचार के इतने तीव्र साधन नहीं थे और जनता के पास अपनी त्वरित प्रतिक्रिया देने का ज़रिया उपलब्ध नहीं था लेकिन आज परिदृश्य पूरी तरह से बदल चुका है l  मेरा मानना है कि इस मामले में सोशल मीडिया जनता के लिए वोट से भी अधिक लाभदायक है, क्योंकि वोट देने के लिए तो हमें फ़िर भी 5 साल तक एक भ्रष्टाचारी सरकार को ही झेलना पड़ता है लेकिन सोशल मीडिया के ज़रिये हम इस पूरी अवधि में घर बैठे सरकार को नियंत्रित कर सकते हैं l पहले विधायक-सांसद चुनाव जीतने के बाद फ़िर अगले चुनाव के समय ही अपनी शकल दिखाने आते थे लेकिन अब ऐसे कामचोर जन-प्रतिनिधियों को जनता सोशल मीडिया पर ही सबक सिखा देती है l  आज काफ़ी हद तक सरकारों को अपने निर्णयों में पारदर्शिता रखनी पड़ती है; आज आप आम आदमी को बेवकूफ़ नहीं बना सकते क्योंकि उसके फ़ोन पर देश-दुनिया की हर जानकारी उपलब्ध है l  पहले जिन नेताओं के दर्शन के लिए पब्लिक को वर्षों कठोर तपस्या करनी पड़ती थी, आज उन नेताओं से हम सोशल मीडिया के ज़रिये घर बैठे सीधे संवाद कर सकते हैं l इस परंपरा का श्रेय निश्चित रूप से पूर्व रेल मंत्री सुरेश प्रभु और पूर्व विदेश मंत्री स्वर्गीय सुषमा स्वराज जी को दिया जाना चाहिए जिन्होंने सबसे पहले सिर्फ़ एक ट्वीट पर आम लोगों को सीधे मंत्रालय से सहायता पहुंचानी शुरू की l  मीलों दूर बैठे किसी भी आम आदमी के एक ट्वीट पर दिल्ली में बैठे कैबिनेट मंत्रियों का त्वरित उत्तर देना एक क्रांतिकारी क़दम था जिसकी अपेक्षा करना भी हम लोगों के लिए कल्पना से परे था l 

निर्भया और सुशांत केस के बाद उपजे जनाक्रोश को सोशल मीडिया ने सकारात्मक दिशा दी जिसके सुखद और आश्चर्यजनक परिणाम सामने आए; हालांकि इसके विपरीत हाल के वर्षों में घटित कई घटनाओं में सोशल मीडिया के ज़रिये ही भ्रामक संदेश फ़ैलाकर समाज को बांटने की साज़िशें भी की गयीं जिसके परिणामस्वरूप होने वाले उपद्रवों में जान-माल का भारी नुकसान भी हुआ l सोशल मीडिया आम जनता के हाथ में दिया गया एक ऐसा ब्रह्मास्त्र है जिसका प्रयोग अगर सोच-समझकर किया जाये तो ये हमारे जीवन में अनपेक्षित सकारात्मक बदलाव ला सकता है, लेकिन अगर ये ग़लत हाथों में पड़ जाए तो प्रलय भी ला सकता है l ये समाज को संगठित करने वाला भी है और विभाजनकारी भी; ये एक आम आदमी को प्रसिद्धि के शिखर तक पहुंचा सकता है तो किसी मशहूर इंसान को चंद घंटों में अर्श से फ़र्श पर ला सकता है; ये सत्यान्वेषी भी है तो अफ़वाहों का भंडार भी है; ये अपनी रचनात्मकता और कला को प्रस्तुत करने का मंच भी है तो अश्लीलता का बाज़ार भी है l  कुल मिलाकर सोशल मीडिया मानव समाज के लिए एक अभिशाप साबित होगा  या वरदान, ये पूर्णतः हमारे विवेक पर निर्भर करता है l

 

Friday, 14 August 2020

आज़ादी

आज़ादी की आबो-हवा में सांस ले रहे है

खुशकिस्मत हैं कि हिंदुस्तान में जी रहे हैं

वतन पर क़ुर्बान होने वाले मरकर भी नहीं मरते
जोश-ए-जुनून की मिसालें बनकर हर घर में जिंदा रहते हैं
जंग-ए-आज़ादी के सिपाही कभी ख़ामोश नहीं होते
अफ़साना बनकर फ़िज़ाओं में गूंजा करते हैं
आज़ादी के परवाने आग से खेला करते हैं
शमा बनकर अंधेरी बस्तियों को गुलज़ार करते हैं
आज़ादी के दीवाने आंधियों में मशाल जलाते हैं
ज्वाला बनकर देशभक्तों के हृदय में दहका करते हैं
आज़ादी के रखवाले जान हथेली पर लिए चलते हैं
गुलशन बनकर सेहरा में महका करते हैं
आज़ादी के मतवाले तिरंगे में लिपटे आते हैं
सरफ़रोशी तमन्ना बनकर हर दिल में धड़का करते हैं
आज़ादी के पैरोकारों की शायद यही एक वसीयत होगी
सबको बराबरी से मिले ये जायदाद,कोई न इसमें हिमाक़त होगी
पर अमानत-ए-आज़ादी छोड़ गए किन बेफ़िकरे हाथों में
आज़ादी का अनमोल हीरा जड़ा गया चोरों की दाढ़ी में
भ्रष्ट सरकारों ने जब आज़ादी की इज़्ज़त लूट ली
तो केसरिया आज़ादी ने धर्मनिरपेक्षता की हरी चादर ओढ़ ली
केरल और बंगाल में आज़ादी पर अनुसंधान होने लगे
अब अभिव्यक्ति की आज़ादी के राजनीतिक अनुष्ठान होने लगे
"भारत तेरे टुकड़े होंगे" ऐसे मंत्रों के आवाहन होने लगे
आज़ादी की देवी जब उतरी जेएनयू के मैदान में
आज़ाद देश के मानसिक ग़ुलाम देश से आज़ादी मांगने लगे
आज़ादी के दामन पर असहिष्णुता का कीचड़ उछालने लगे
अड़ियल अमेरिका से गुस्ताख़ चीन तक
कट्टरपंथी अरब मुल्क़ों से नापाक पाकिस्तान तक
दमिश्क से बारूद के ढेर पर बैठे बेरूत तक
आज़ाद परिंदे "होशंगाबादी" की आरज़ू है बस इतनी कि
आज़ादी की अलख जगाओ,आज़ादी की हवस नहीं
आज़ादी के लिए अभिनंदन बनो,आतंकवादी नहीं।

सोनल "होशंगाबादी" की क़लम से।










Tuesday, 4 August 2020

अयोध्या

फ़िर लौट आयी है अयोध्या की रौनक
भादो में हुई है दिवाली की सी जगमग
चहुंओर जय श्रीराम का नारा है गुंजायमान
भव्य मंदिर में होंगे अब रामलला विराजमान।
अंधकार मिटा है सदियों का
फ़ल है अथक परिश्रम का
स्वप्न है सलोना पीढ़ियों का
मंज़र ये सुहाना शाम-ए-अवध का।
प्रफ़ुल्लित है जग,हर्षित है मन
महामारी से तंग,दुनिया है दंग
पीली रंगी अयोध्या में,अरसे बाद बसंत ऋतु आयी है
सुनसान पड़ी अयोध्या में,फ़िर से ख़ुशहाली छाई है
त्रेता युग में वनवास और कलियुग में टेंट वास
पांच सौ बरसों से हिंदुओं की एक ही आस
सनातन संस्कृति का अब और नहीं होगा उपहास।
कारसेवकों का बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा
भव्य मंदिर पर जब भगवा ध्वज लहराएगा
सरयू तीरे रघुकुल का गौरव पुनर्स्थापित होगा
हिन्दू आस्था का केंद्र अवध अब पुनर्जीवित होगा।
नेपाल से श्रीलंका तक राम,कंबोडिया से कोरिया तक राम
हिंदी की सरलता हैं राम तो उर्दू की नफ़ासत हैं राम
क्षत्रियों के राजा राम तो आदिवासियों के बनवासी राम
अहिल्या के हैं राम तो शबरी के भी राम
हनुमान के हैं राम तो केवट के भी राम
वाल्मीकि के राम तो तुलसी के भी राम
हिंदुओ के हैं राम तो इंडोनेशिया के मुस्लिमों के भी राम
किसी एक संप्रदाय के नहीं,हम सबके हैं राम।
आओ हम मिलकर राम-राज्य का संकल्प करें
जात-पात के बंधनों को तोड़ने का संकल्प करें
मज़हबी मनमुटावों को भूलने का संकल्प करें
भारत को पुनः विश्व-गुरु बनाने का संकल्प करें
"होशंगाबादी" के मन में तो टीस है
जो अयोध्या की पावन भूमि से कोसों दूर है
फ़िर भी रोम-रोम रोमांचित है
किंतु कुछ बातों से मन आशंकित है
बस ध्यान रहे कि दंभ कभी न आने पाए
आध्यामिकता आडंबर की भेंट न चढ़ने पाए
आत्म-सम्मान अभिमान की शक़्ल न लेने पाए
धार्मिक आयोजन हुड़दंग कभी न बनने पाए
जय श्रीराम का नारा हिंसक कभी न होने पाए
कट्टरता से हिंदुत्व की छवि धूमिल कभी न होने पाए
"वसुधैव कुटुम्बकम" की राह से पथभ्रष्ट कभी न होने पाएं

रामभक्त सोनल"होशंगाबादी" की क़लम से।