Monday, 25 October 2021

अज्ञात नायक: टंट्या भील

 सर्वविदित है कि भारतवर्ष के स्वाधीनता-संग्राम रुपी यज्ञ में असंख्य वीरों एवं वीरांगनाओं ने अपने प्राणों की आहुति दी है I भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव, चंद्रशेखर आज़ाद, वीर सावरकर, रानी लक्ष्मीबाई, सुभाषचंद्र बोस, महात्मा गाँधी, खुदीराम बोस, दादाभाई नौरोजी, तात्या टोपे, मंगल पांडे, अशफाक़उल्ला खान, लाला लाजपत राय, रामप्रसाद बिस्मिल, बाल गंगाधर तिलक, बिपिनचंद्र पाल इत्यादि अनेक महान नाम हैं जिनके बारे में हम इतिहास और शैक्षणिक पुस्तकों में पढ़ते आए हैं I परंतु इन नामों के अतिरिक्त भी ऐसे कई गुमनाम चेहरे हैं जिनके बारे में हमें इतिहास में अत्यधिक कम या लगभग न के बराबर जानकारी मिलती है, किंतु इतिहास की उपेक्षा देश के स्वतंत्रता संग्राम में दिए हमारे इन अज्ञात नायकों के अतुल्य बलिदान को किंचित भी कम न कर सकी I ऐसे ही एक दिलेर लेकिन गुमनाम स्वतंत्रता-सेनानी थे टंट्या भील जिन्हें टंट्या “मामा” के नाम से भी संबोधित किया जाता है I

आम लोगों की तरह मैं भी कुछ वर्ष पूर्व तक टंट्या भील के नाम से पूर्णतः अनभिज्ञ थी I टंट्या भील से मेरा परिचय हाल ही में वर्ष २०१९ में हुआ I इसे एक सुखद संयोग ही कहा जा सकता है कि जिस दिन इस क्रांतिकारी के बारे में मुझे जानने का अवसर मिला, वह २ अक्टूबर अर्थात गाँधी जयंती का पावन दिन था I अवकाश का दिन होने के कारण इस दिन मैने पातालपानी-कालाकुंड भ्रमण की आकस्मिक योजना बनाई I उस समय यात्रा का यह विकल्प हमारे लिए सबसे अनुकूल था क्योंकि मध्य प्रदेश पर्यटन निगम की ओर से पातालपानी व कालाकुंड की सैर के लिए एक विशेष हेरिटेज ट्रेन चलायी जाती है जो सुबह महू रेलवे स्टेशन से प्रस्थान करके पातालपानी होते हुए आखरी स्टेशन कालाकुंड पहुँचती है I ९.५किमी. लंबे इस मीटर गेज़ रेलवे ट्रैक पर चलते हुए ये ट्रेन कई सुरंगों और तीखे मोड़ों से गुज़रती है जिसमें बैठकर आप इसके पारदर्शी कोचों से सुंदर झरनों, कल-कल बहती चोरल नदी तथा विंध्याचल पर्वत की मनोरम प्राकृतिक छटा को जी भरकर निहार सकते हैं I इस प्राकृतिक सुंदरता के अतिरिक्त अंग्रेजों के समय बनाए गए इस रेलवे ट्रैक की एक और विशेषता है जिससे बहुत कम लोग ही वाकिफ़ हैं और वो है टंट्या भील का मंदिर .......

हमारी ट्रेन पातालपानी झरने पहुँचने ही वाली थी जिसका हम सभी बेसब्री से इंतज़ार कर रहे थे कि सहसा तभी ट्रेन यकायक रुक गयी; हमें लगा कि शायद किसी तकनीकी ख़राबी की वजह से ऐसा हुआ है! तभी ट्रेन में मौजूद गाइड ने उस स्थल की जानकारी देना आरंभ किया जिसे उसने बड़े ही आदर-पूर्वक “टंट्या मामा” का मंदिर कहकर संबोधित किया I गाइड ने बताया कि ये एक अज्ञात लेकिन वीर क्रांतिकारी का बलिदान-स्थल है I वह एक छोटा झोपड़ीनुमा मंदिर था जिसमें टंट्या मामा की प्रतिमा स्थापित थी I ट्रेन में मौजूद बाकी सभी लोगों के समान मैं भी उस समाधि-स्थल एवं उससे जुड़ी महान शख्सियत से पूरी तरह अनजान थी I हमने उत्सुकतावश गाइड से उस मंदिर और टंट्या मामा के बारे में थोड़ा और विस्तार से बताने के लिए आग्रह किया जिसे उसने सम्मान-पूर्वक स्वीकार किया I

गाइड ने हमें बताया कि टंट्या भील एक महान आदिवासी जननायक थे जिन्हें अंग्रेजों ने “भारतीय रॉबिनहुड” नाम दिया था I टंट्या भील का जन्म मध्य प्रदेश के खंडवा ज़िले में हुआ था और पातालपानी उनका कर्म-स्थल था I माना जाता है कि खंडवा जिले की पंधाना तहसील के ग्राम बडदा में सन १८४२ में भील जनजाति के आदिवासी परिवार में टंट्या का जन्म हुआ था I भील मध्य प्रदेश की प्रमुख जनजातियों में से एक है जो गोंड व संथाल के बाद देश की तीसरी सबसे बड़ी जनजाति भी है I वनों के क्षेत्रफ़ल के पैमाने पर मध्य प्रदेश देश में प्रथम स्थान पर आता है, यहाँ विंध्याचल और सतपुड़ा के घने जंगल दूर-दूर तक फ़ैले हुए हैं जिन पर कई प्रसिद्ध कविताएँ भी लिखी गयी हैं और इन्हीं सुदूर वनों में रहते हैं विभिन्न जनजातियों वाले आदिवासी समुदाय I आधुनिकता के इस दौर में भी ये आदिवासी समुदाय आज भी अपनी जड़ों से जुड़े हुए हैं; मध्य प्रदेश के कई वन्य-बहुल ज़िलों में ये आदिवासी समुदाय आज भी घने जंगलों में पारंपरिक तरीकों से ही जीवन-यापन करते हैं I ये आज भी अपनी प्राचीन संस्कृति को अक्षुण्ण रखे हुए हैं; ये जंगलों पर अपना अधिकार जताते हैं क्योंकि जंगलों से ही इनका इतिहास जुड़ा हुआ है I ये वनदेवी की पूजा करते हैं और वनों के रक्षक माने जाते हैं I

वनांचल में रहने वाले इन आदिवासी समुदाय के बालकों को बचपन से ही लाठी तथा तीर-कमान चलाने का प्रशिक्षण दिया जाता है I आज भी मध्य प्रदेश के बड़वानी एवं झाबुआ जैसे आदिवासी बहुल क्षेत्रों में आपका सामना तीर-कमान धारी किसी आदिवासी युवक से हो सकता है I लिहाज़ा पिता भाऊसिंह ने टंट्या को भी बाल्यकाल से ही लाठी-गोफन व तीर-कमान चलाने का प्रशिक्षण देना प्रारंभ कर दिया और धीरे-धीरे बालक टंट्या ने लाठी चलाने व धर्नुविद्या में योग्यता प्राप्त कर ली I युवावस्था में अंग्रेजों के सहयोगी साहूकारों की प्रताड़ना से तंग आकर नौजवान टंट्या ने अपने साथियों के साथ जंगल से ही अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह का बिगुल बजा दिया I टंट्या एक गांव से दूसरे गांव घूमता रहा और अंग्रेजों से माल लूटकर  गरीबों में बांटने लगा I

टंट्या भील के बाग़ी तेवरों की तपिश जल्दी ही ब्रिटिश हुकूमत को महसूस होने लगी I अमीरो से धन लूटकर गरीबों में बांटने के कारण अंग्रेज़ उसे आदिवासियों का “रॉबिनहुड” कहने लगे I ज्ञातव्य है कि रॉबिनहुड नामक पश्चिम में एक कुशल तलवारबाज और तीरंदाज था, जो अमीरो से माल लूटकर गरीबों में बांटता था I टंट्या भील के कारनामों और अदम्य साहस की भनक जब १८५७ की क्रांति के प्रणेता तात्या टोपे को लगी तो उन्होंने टंट्या भील को अंग्रेजों के खिलाफ़ गुरिल्ला युद्ध में पारंगत करने का निश्चय किया; गौरतलब है कि तात्या टोपे को गुरिल्ला युद्ध प्रणाली में महारत हासिल थी I जंगल के इलाक़ों में युद्ध की गुरिल्ला तकनीक सबसे अधिक कारगर मानी जाती है I

तत्पश्चात टंट्या भील के नेतृत्व में बहादुर भीलों ने अनेक वर्षों तक अंग्रेजों से गुरिल्ला युद्ध किया । इन आदिवासी वीरों का संघर्ष भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास के कुछ स्वर्णिम पृष्ठ हैं। शक्‍त‌िशाली ब्रिटिश साम्राज्य की ग्यारह सालों तक नींद उड़ा देने वाला टंट्या भील अंग्रेजों की दृष्‍ट‌ि में एक डाकू था; लेकिन वर्षों पहले आदिवासियों व किसानों को साहूकार और जुल्मी सरकार के खिलाफ विद्रोह की प्रेरणा देने वाले टंट्या एक असाधारण वीर पुरुष थे । टंट्या भील आदिवासी और किसानों की क्रांति के पहले जननायक थे। उन्होंने आदिवासियों और किसानों में राष्‍ट्रीयता की भावना जगाई। टंट्या का प्रभाव मध्यप्रांत, खानदेश, होशंगाबाद, बैतुल, महाराष्ट्र के पर्वतीय क्षेत्रों के अलावा मालवा तक फ़ैल गया. टंट्या ने सरकारी रेलगाड़ी से ले जाया जा रहा अनाज लूटकर अकाल से पीड़ित लोगों में बंटवाया I शीघ्र ही वह लोगो के सुख-दुःख के भागी बन गए; निर्धन व असहाय लोगो की मदद करने से वह सबके चहेते बन गए और जनता उनकी पूजा करने लगी I इसके अलावा अनेक गरीब कन्याओं की शादी कराने के कारण लोग उन्हें ‘टंट्या मामा’ कहकर संबोधित करने लगे I उस समय जनमानस में यह विश्वास पैदा हो गया था कि टंट्या मामा के रहते कोई गरीब भूखा नहीं सोएगा I

टंट्या भील झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई को अपना प्रेरणा-स्त्रोत मानते थे I अपने विद्रोही तेवर से उन्होंने बहुत कम समय में ही बड़ी पहचान हासिल कर ली थी I उन्होंने अंग्रेजों के शोषण तथा भारत में विदेशी हस्तक्षेप का सदैव खुलकर विरोध किया I उन्होंने ग़रीबों और अमीरों के बीच का भेद मिटाने के हर संभव प्रयास किये I अंग्रेजों के छक्के छुड़ाने वाले टंट्या मामा गरीबों की मदद करने के कारण इतने लोकप्रिय थे कि जब अंग्रेजों द्वारा उन्हें गिरफ्तार करके अदालत में पेश करने के लिए जबलपुर ले जाया गया तब टंट्या की एक झलक पाने के लिए जगह-जगह जनसैलाब उमड़ पड़ा था I इसके बाद टंट्या को फांसी की सजा सुनाई गयी और महू के पास पातालपानी के जंगल में उन्हें फाँसी पर लटकाया गया था, जहां पर आज इस वीर पुरुषकी समाधि बनी हुई है I विचित्र संयोग है कि जंगल में पैदा होने वाला एक भील आदिवासी जिसने जीवन भर जंगल में रहकर ही अंग्रेजों से लोहा लिया, उसने अपनी अंतिम सांस भी जंगल की आग़ोश में ही ली I  

कहते हैं कि पातालपानी के जंगलों में टंट्या भील की आत्मा आज भी अमर है I यही वजह है कि इस रेलवे ट्रैक से गुजरने वाली हर रेलगाड़ी टंट्या मामा के मंदिर के सामने कुछ देर रूककर इस वीर शहीद को सलामी देती हैं I मध्य प्रदेश और महाराष्‍ट्र के आदिवासी इलाकों में आज भी इस आदिवासी नायक के साहस की कहानियां नाटक और लोकगीतों के माध्यम से प्रचलित हैंI

टंट्या मामा के बलिदान दिवस यानि ४दिसंबर के दिन वर्ष२०१४ में उनके जन्म-स्थान पंधाना में शहीद जननायक टंट्या भील अध्ययन केंद्र की स्थापना की गयी थी I इस शिक्षण संस्थान में आर्थिक रूप से कमजोर प्रतिभावान छात्र-छात्राओं के लिए प्रतियोगी परीक्षाओं की निःशुल्क तैयारी करवाई जाती है। वर्तमान में लगभग १करोड़ की लागत से इस संस्थान को और अधिक अत्याधुनिक बनाया जा रहा है जिसके अंतर्गत तक़रीबन १००विद्यार्थियों के यहां रहने व खाने की व्यवस्था भी की जाएगी। इस भवन के सामने टंट्या मामा की ५फीट ऊंची मूर्ति भी लगाई जाने की सरकार की योजना है।

भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम के इतिहास में आदिवासियों की भूमिका के विषय में बहुत कम लिखा गया है जबकि वास्तविकता यह है कि इन जनजातीय समुदायों ने भी अपने अधिकारों की रक्षा के लिए अंग्रेजों के विरुद्ध व्यापक संघर्ष किया था I अंग्रेजों के खिलाफ़ आदिवासी विद्रोह का सर्वप्रथम उल्लेख हमें १७५७ के प्लासी के युद्ध के बाद मिलता है I आदिवासियों में सामाजिक एकजुटता थी और वे हर हाल में अपनी संस्कृति को विदेशी प्रभाव से बचाना चाहते थे I आदिवासी समुदाय की यही एकता और अपनी पुरातन संस्कृति से जुड़ाव हमें आज भी देखने को मिलता है I  अपने अत्यंत सीमित संसाधनों के बावजूद आदिवासियों ने लंबे समय तक अंग्रेज़ों के विरुद्ध संघर्ष किया एवं अपने गुरिल्ला युद्ध-कौशल के बल पर अंग्रेजों को नाकों चने चबाने पर मजबूर कर दिया I

टंट्या भील का नाम गुमनामी के अंधकार में छिपा एक ऐसा सितारा है जिसके प्रकाश से जन-जन को लाभान्वित होना चाहिए I

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