Tuesday, 5 February 2013


जागो रे ....
अब बात निकली है तो दूर तलक़ जाएगी।कुछ वर्ष पूर्व एक फिल्म आई थी "आजा नच ले ".जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है कि ये एक नृत्य आधारित फिल्म थी लेकिन ये भी विवादों से न बच सकी।क्योंकि इसके एक गीत में एक वर्ग विशेष के लोगों ने नायिका के शानदार नृत्य और गीत के मधुर संगीत को नज़रंदाज़ करते हुए सिर्फ गीत की एक पंक्ति को अपने मान-सम्मान के लिए ख़तरा  समझकर पूरी फिल्म के प्रदर्शन पर रोक लगा दी थी।ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर बनी  "जोधा -अक़बर "को भी विवादों के चलते काफ़ी  नुकसान उठाना पड़ा और फिल्म राजस्थान में सिर्फ इसलिए रिलीज़ नही हो पाई क्योंकि महारानी जोधा के जन्मस्थान बल्कि उनके स्वयं के अस्तित्व को लेकर भी संशय की स्थिति है।लेकिन इस फिल्म को बनाने के पीछे फ़िल्मकार का मक़सद जोधा के अस्तित्व की खोज करना नही वरन जोधा -अक़बर की अनछुई प्रेम कहानी को लोगों के सामने लाना था।लेकिन हुडदंगियों के लिए ये बात कोई मायने नही रखती।यहाँ बड़ा सवाल ये है कि फिल्मों से सिर्फ हमारी धार्मिक भावनाएं ही क्यू आहत होती हैं?कभी हमारी राष्ट्रीयता या भारतीयता की भावना आहत क्यू नही होती?उदाहरण -स्वरुप,आज ज़्यादातर 'A'ग्रेड वाली फिल्मे बॉक्स- ऑफिस पर सुपर -हिट  साबित होती हैं।'A 'ग्रेड किसी भी फिल्म को मिलना इस बात का सूचक है कि  फिल्म में अश्लील चीज़ें दिखाई गई हैं लेकिन इन फिल्मों पर कोई धार्मिक संगठन आपत्ति क्यू नही लेता ?आज कुछ अभद्र महिलाओं को जिन्हें अंग्रेजी में Porn Star कहा जाता है भारतीय फिल्मों की नायिका बनाया जा रहा है या यूँ कहें कि भारतीय अभिनेत्रियों को Porn Star बनाया जा रहा है और वो अपना ये हुनर भारतीय फिल्मों में दिखा रही हैं।आज हमारी फिल्मों में वास्तविकता के नाम पर अश्लीलता खुलेआम परोसी जा रही है,लेकिन इन फिल्मो से किसी धार्मिक या महिला संगठन को कोई आपत्ति नही?क्या इन फिल्मों से हमारी भारतीयता की भावना आहत नही होती?किसी ज़माने में हमारी फिल्मे इसी सन्दर्भ में विदेशी फिल्मों से अलग मानी जाती थी कि उनमे नारी की गरिमा का ध्यान रखा जाता था।हमारी फिल्मों में नायिका को संस्कारवान और आदर्श भारतीय नारी की तरह प्रस्तुत किया जाता था जिसे अब पाश्चात्य नारी की तरह प्रदर्शित किया जाता है।मीना कुमारी,नरगिस,नूतन और माला सिन्हा इत्यादि अनेकों अभिनेत्रियों ने हमेशा नारी की गरिमा का ध्यान रखते हुए फ़िल्में की और फिल्म इंडस्ट्री में एक सफल पारी खेली। 
क्या ऐसी फिल्मो से हमारी भारतीय संस्कृति को ठेस नही पहुंचती?और अगर पहुँचती है तो इन फिल्मो के प्रदर्शन को रोकने का प्रयास क्यू नही किया जाता?वैलेंटाइन डे का विरोध करने वाले इन फिल्मों का विरोध क्यू नही करते?ऐसी फ़िल्में बनाने वालो के खिलाफ फ़तवे क्यू नही जारी किये जाते ? लेकिन मैं जानती हूँ  कि इन फिल्मों का विरोध करने का साहस आज किसी में नही है क्योंकि हम खुद ऐसी फ़िल्में देखना पसंद करते हैं।शायद यही है हमारे आधुनिक भारतीय समाज का दोहरा रवैया!
जय हिन्द।   

जागो रे ....
आज एक और समुदाय की धार्मिक भावनाओं के आहत होने का समाचार पढ़ा।अब निशाने पर हैं एक और श्रेष्ठ फ़िल्मकार मणिरत्नम।मेरे विचार से अब सभी फिल्मकारों को एक बात गांठ बांध लेना चाहिए कि अगर उन्हें करोड़ों के नुकसान से बचना है तो उन्हें सिर्फ हिन्दू धर्म से जुड़े पात्रों और घटनाओं पर फ़िल्में बनानी चाहिए,क्योंकि अब हमारे देश में यही एक धर्म रह गया है जिसकी धार्मिक भावनाएं कभी आहत नही होती।वैसे कई दिनों से मेरे दिमाग में एक प्रश्न उठ रहा है कि क्या अब फिल्मे ,जो कभी सिर्फ मनोरंजन का माध्यम हुआ करती थी करोड़ों रूपए खर्च करके सिर्फ धार्मिक भावनाओं को आहत करने के लिए ही बनाई  जाती हैं ?फिल्मे जो एक काल्पनिक माध्यम हैं मनोरंजन का ,इस काल्पनिक माध्यम में दिखाई गई चीज़ों को क्या हमें इतनी गंभीरता से लेना चाहिए?वो भी तब जब हम सभी जानते हैं कि ज़्यादातर फिल्मकारों का अपनी फिल्म के ज़रिये सिर्फ एक ही उद्देश्य होता है और वो है अधिक -से -अधिक पैसा कमाना।यहाँ सवाल उठता है कि अगर हम फिल्मों के प्रति इतने गंभीर हैं तो  सामाजिक सोद्देश्यता को लेकर बनी कई फिल्मों को हमने इतनी गंभीरता से क्यू नही लिया ?"सत्यकाम"से हमने ईमानदारी से रहना क्यू नही सीखा ?"आनंद "से सबको हँसना -हँसाना क्यू नही सीखा ?"अनाड़ी  "जैसा भोलापन अब क्यू नही रहा हममे ? "सरफ़रोश "से पुलिस वालो ने अपना फ़र्ज़ निभाना क्यू नही सीखा ?"शिखर "से हमने प्रकृति के प्रति अपने कर्त्तव्य को क्यू नही समझा?"स्वदेश "से हमने खुद किसी पिछड़े गाँव की दशा सुधारने का बीड़ा उठाना क्यू नही सीखा ?"बॉर्डर "से वतन पर मरना क्यू नही सीखा ?"तारे ज़मीं पर "से सीख लेकर हमने मानसिक रूप से विक्षिप्त बच्चों के लिए क्यू कुछ नही किया ? "सारांश " और "अवतार "जैसी फिल्मों से हमने बुजुर्गों का आदर करना क्यू नही सीखा ?"मदर इंडिया ","सीमा ","बंदिनी", "लीडर ","कर्मा "और भी न जाने कितनी ऐसी फ़िल्में हैं जो बड़े ही मनोरंजक ढंग से हमें सामाजिक सरोकार की सीख देती हैं लेकिन हमने इसकी तरफ़ ध्यान नही दिया क्योंकि हम सिर्फ उन बातों पर ध्यान देते हैं जिनसे हमें धर्म की आड़ लेकर राजनीति और हुडदंग करने का मौक़ा मिले!
जय हिन्द।

Monday, 4 February 2013


जागो रे ....
वैसे ये जानकर अजीब लगा कि जिस वर्ग की धार्मिक भावनाएं  इस फिल्म से आहत हुई हैं उसी समुदाय से सम्बन्ध रखने वाले कलाकारों-सलमान खान ,फरहान अख्तर और आमिर खान की भावनाएं इस फिल्म से आहत  नही हुई!ऐसा शायद इसलिए है क्योंकि ये मामला धार्मिक भावनाओं से नही बल्कि राजनीतिक सौदों से जुड़ा है जिसे हवा दी है धर्म की आड़ लेकर  राजनीतिक रोटियां सेकने वाले कुछ छुटभैये नेताओं ने।फिल्मो को स्वीकार या अस्वीकार करने या उन पर कैंची चलाने के लिए ही एक मानद संगठन का गठन किया गया था जिसे सेंसर बोर्ड कहते हैं लेकिन कट्टर धार्मिकता का काला नक़ाब पहनने वालो के लिए ये संगठन कोई मायने नही रखता।आये दिन फिल्मों पर धार्मिक भावनाओं को आहत  करने का आरोप लगते समय हम ये क्यू भूल जाते हैं कि भारत में अगर सही मायनो में कोई धर्म-निरपेक्ष जगह है तो वो है भारतीय फिल्म इंडस्ट्री (बॉलीवुड ),जहाँ शक़ील बदायुनी "मन तडपत हरि दर्शन को आज "जैसे भजन की रचना करते हैं,नौशाद उसे संगीत में पिरोते हैं और मोहम्मद रफ़ी उसे  अपनी दिलकश आवाज़ से अमर बना देते हैं।जहाँ अमर-अकबर -अन्थोनी जैसी फिल्मे बड़े ही मनोरंजक ढंग से साम्प्रदायिक सौहाद्र का सन्देश दे जाती हैं।जहाँ दिवाली,ईद,होली,रक्षा -बंधन,नया वर्ष,बैसाखी और क्रिसमस जैसे सभी त्यौहार सभी धर्मों के लोग मिल-जुलकर मनाते हैं।प्रसिद्ध गीतकार एवं शायर जावेद अख्तर ने कहा था कि फ़िल्में समाज का आइना होती हैं।लेकिन आज इस आईने में हम अपनी  बदसूरत शक्ल क्यू नही देखना चाहते?अगर कोई इस आईने में समाज की वास्तविकता को दिखाने  का प्रयास करता है तो हम उसे देश का दुश्मन क्यू  समझ लेते हैं?
जय हिन्द।

जागो रे ....
"इस फिल्म  के सभी पात्र एवं घटनाएँ काल्पनिक हैं और इनका किसी जीवित या मृत व्यक्ति से कोई सम्बन्ध नही है।अगर किसी व्यक्ति या घटना से कोई समानता पाई जाती है तो इसे एक केवल एक संयोग माना  जाएगा।"हम लगभग हर हिंदी फिल्म के शुरू होने से पहले ये स्पष्टीकरण देखते हैं लेकिन  आज ये महज़ एक औपचारिकता बनकर रह गया है !किसी भी कट्टर धार्मिक संगठन के लिए इसका कोई महत्त्व नही है।आज के कुछ बुद्धिजीवी देश में ऐसी स्थिति को सांस्कृतिक आपातकाल कह रहे हैं जिसकी गाज आये दिन गिर रही है निर्दोष साहित्यकारों  और कलाकारों  पर।लेकिन विडम्बना ये है कि आपातकाल लगाने वालों को तो शुरू से ही हमारे  देश में पूजा जाता रहा है और आज भी वे लोग पूजे जाते हैं।हाल ही में इस आपातकाल का शिकार हुए एक श्रेष्ठ कलाकार ने इसे सांस्कृतिक आतंकवाद कहा है।इस तरह के आतंकवादी कब्ज़ा  करना चाहते हैं इन कलाकारों की अभिव्यक्ति की आज़ादी पर।उक्त कलाकार ने कहा कि  अगर उनकी कृति को प्रदर्शित नही होने दिया जाता तो उन्हें ऐसे किसी  देश में जाकर बसना होगा जहाँ  धर्म-निरपेक्षता हो,धर्म-निरपेक्षता का दावा करने वाले हम भारतीयों  के लिए ये निहायती शर्म की बात है।लेकिन हमारे देश के बुद्धिजीवियों का इस देश से पलायन  करना कोई नया नही है,इसीलिए उक्त कलाकार की इस बात को किसी ने कोई तवज्जो  नही दी।हमने सोचा चाहे जहाँ भी चले जाइये लेकिन कहलायेंगे तो भारतीय मूल के और भविष्य में आपको कोई भी सफलता मिलती है तो हम भारतीय मूल के उक्त कलाकार कहकर ही संतोष कर लेंगे।भले ही आप 4बार के राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता हों  और पद्मश्री भी ग्रहण कर चुके हों!लेकिन हमारे देश में ऐसी प्रतिभा का सम्मान करने वाला कोई नही।उक्त कलाकार ने अपने आपको राजनीति का भी शिकार बताया।लेकिन कुछ राजनीतिज्ञ निर्माता-निर्देशक पर आरोप लगा रहे हैं कि इस कृति में एक समुदाय विशेष के लोगों को निशाना बनाते हुए उनकी धार्मिक भावनाओं को आहत किया गया है।वैसे  राजनीति  की कडाही में विवादों की दाल को ऐसे ही आरोपों के तडके लगाकर स्वादिष्ट बनाने का प्रयास किया जाता है अन्यथा ये दाल फीकी रह जाएगी।वैसे कोई व्यक्ति किसी समुदाय विशेष के प्रति अपने व्यक्तिगत वैमनस्य को प्रदर्शित करने के लिए  करोड़ों रूपए आसानी से दांव पर लगा देगा,ये बात गले नही उतरती!
बहरहाल, इस कृति में अब पर्याप्त काट-छांट करने के बाद दक्षिण भारत में रिलीज़ किया जा रहा है या यूँ कहें की postmortum करने के बाद मृत शरीर को जीवित करने का प्रयास किया जा रहा है।और इस मृतप्राय शरीर की संजीवनी बूटी हमारे पास है इसीलिए मेरा सभी सिनेमा-प्रेमियों से अनुरोध है कि  वे अधिक-से-अधिक संख्या में इस फिल्म को सिनेमा-हॉल में देखने जाएँ और इस फिल्म को सफल बनायें।
जय हिन्द।