जागो रे ....
वैसे ये जानकर अजीब लगा कि जिस वर्ग की धार्मिक भावनाएं इस फिल्म से आहत हुई हैं उसी समुदाय से सम्बन्ध रखने वाले कलाकारों-सलमान खान ,फरहान अख्तर और आमिर खान की भावनाएं इस फिल्म से आहत नही हुई!ऐसा शायद इसलिए है क्योंकि ये मामला धार्मिक भावनाओं से नही बल्कि राजनीतिक सौदों से जुड़ा है जिसे हवा दी है धर्म की आड़ लेकर राजनीतिक रोटियां सेकने वाले कुछ छुटभैये नेताओं ने।फिल्मो को स्वीकार या अस्वीकार करने या उन पर कैंची चलाने के लिए ही एक मानद संगठन का गठन किया गया था जिसे सेंसर बोर्ड कहते हैं लेकिन कट्टर धार्मिकता का काला नक़ाब पहनने वालो के लिए ये संगठन कोई मायने नही रखता।आये दिन फिल्मों पर धार्मिक भावनाओं को आहत करने का आरोप लगते समय हम ये क्यू भूल जाते हैं कि भारत में अगर सही मायनो में कोई धर्म-निरपेक्ष जगह है तो वो है भारतीय फिल्म इंडस्ट्री (बॉलीवुड ),जहाँ शक़ील बदायुनी "मन तडपत हरि दर्शन को आज "जैसे भजन की रचना करते हैं,नौशाद उसे संगीत में पिरोते हैं और मोहम्मद रफ़ी उसे अपनी दिलकश आवाज़ से अमर बना देते हैं।जहाँ अमर-अकबर -अन्थोनी जैसी फिल्मे बड़े ही मनोरंजक ढंग से साम्प्रदायिक सौहाद्र का सन्देश दे जाती हैं।जहाँ दिवाली,ईद,होली,रक्षा -बंधन,नया वर्ष,बैसाखी और क्रिसमस जैसे सभी त्यौहार सभी धर्मों के लोग मिल-जुलकर मनाते हैं।प्रसिद्ध गीतकार एवं शायर जावेद अख्तर ने कहा था कि फ़िल्में समाज का आइना होती हैं।लेकिन आज इस आईने में हम अपनी बदसूरत शक्ल क्यू नही देखना चाहते?अगर कोई इस आईने में समाज की वास्तविकता को दिखाने का प्रयास करता है तो हम उसे देश का दुश्मन क्यू समझ लेते हैं?
जय हिन्द।
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