Tuesday, 5 February 2013


जागो रे ....
आज एक और समुदाय की धार्मिक भावनाओं के आहत होने का समाचार पढ़ा।अब निशाने पर हैं एक और श्रेष्ठ फ़िल्मकार मणिरत्नम।मेरे विचार से अब सभी फिल्मकारों को एक बात गांठ बांध लेना चाहिए कि अगर उन्हें करोड़ों के नुकसान से बचना है तो उन्हें सिर्फ हिन्दू धर्म से जुड़े पात्रों और घटनाओं पर फ़िल्में बनानी चाहिए,क्योंकि अब हमारे देश में यही एक धर्म रह गया है जिसकी धार्मिक भावनाएं कभी आहत नही होती।वैसे कई दिनों से मेरे दिमाग में एक प्रश्न उठ रहा है कि क्या अब फिल्मे ,जो कभी सिर्फ मनोरंजन का माध्यम हुआ करती थी करोड़ों रूपए खर्च करके सिर्फ धार्मिक भावनाओं को आहत करने के लिए ही बनाई  जाती हैं ?फिल्मे जो एक काल्पनिक माध्यम हैं मनोरंजन का ,इस काल्पनिक माध्यम में दिखाई गई चीज़ों को क्या हमें इतनी गंभीरता से लेना चाहिए?वो भी तब जब हम सभी जानते हैं कि ज़्यादातर फिल्मकारों का अपनी फिल्म के ज़रिये सिर्फ एक ही उद्देश्य होता है और वो है अधिक -से -अधिक पैसा कमाना।यहाँ सवाल उठता है कि अगर हम फिल्मों के प्रति इतने गंभीर हैं तो  सामाजिक सोद्देश्यता को लेकर बनी कई फिल्मों को हमने इतनी गंभीरता से क्यू नही लिया ?"सत्यकाम"से हमने ईमानदारी से रहना क्यू नही सीखा ?"आनंद "से सबको हँसना -हँसाना क्यू नही सीखा ?"अनाड़ी  "जैसा भोलापन अब क्यू नही रहा हममे ? "सरफ़रोश "से पुलिस वालो ने अपना फ़र्ज़ निभाना क्यू नही सीखा ?"शिखर "से हमने प्रकृति के प्रति अपने कर्त्तव्य को क्यू नही समझा?"स्वदेश "से हमने खुद किसी पिछड़े गाँव की दशा सुधारने का बीड़ा उठाना क्यू नही सीखा ?"बॉर्डर "से वतन पर मरना क्यू नही सीखा ?"तारे ज़मीं पर "से सीख लेकर हमने मानसिक रूप से विक्षिप्त बच्चों के लिए क्यू कुछ नही किया ? "सारांश " और "अवतार "जैसी फिल्मों से हमने बुजुर्गों का आदर करना क्यू नही सीखा ?"मदर इंडिया ","सीमा ","बंदिनी", "लीडर ","कर्मा "और भी न जाने कितनी ऐसी फ़िल्में हैं जो बड़े ही मनोरंजक ढंग से हमें सामाजिक सरोकार की सीख देती हैं लेकिन हमने इसकी तरफ़ ध्यान नही दिया क्योंकि हम सिर्फ उन बातों पर ध्यान देते हैं जिनसे हमें धर्म की आड़ लेकर राजनीति और हुडदंग करने का मौक़ा मिले!
जय हिन्द।

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