पिछले दिनों शहर में हर साल की तरह इस साल भी लालबाग़ परिसर में मालवा उत्सव का आयोजन किया गया जो छोटे शहरों के मेलों की याद दिलाता है जिसमें इतवार का दिन पूरा परिवार मेले की सैर पर जाता था और सबसे ज़्यादा ख़ुश होते थे बच्चे क्योंकि उन्हें मालूम होता था कि आज उन्हें मनपसंद कपड़े और खिलौने दिलाये जाएंगे,रंग-बिरंगी कुल्फ़ी खाने को मिलेगी और इन सबसे बढ़कर झूलों में बैठकर आसमान छूने का रोमांच मिलेगा। लेकिन मालवा उत्सव की ख़ासियत है इसमें होने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रम,जिसमें भारत के विभिन्न प्रदेशों से आये कलाकार स्थानीय लोक-संगीत,लोक-नृत्य और शास्त्रीय नृत्य की प्रस्तुति देते हैं। कहीं महाराष्ट्र का मनभावन लावणी है जिसे करने के लिए शरीर में बिजली सी स्फ़ूर्ति होनी चाहिए,कहीं राजस्थान का कालबेलिया नृत्य है जो सपेरों के घर की महिलाओं द्वारा किया जाता है, कहीं मालवा का मटकी नृत्य है जो घर की महिलाओं द्वारा मांगलिक उत्सवों पर किया जाता है तो कहीं तेलंगाना का गुस्साड़ी नृत्य है जो वहां के आदिवासी समुदाय के युवकों द्वारा किया जाता है। ये सब देखकर मन गर्व से भर जाता है कि हम कितनी अमूल्य सांस्कृतिक विरासत के धनी हैं लेकिन इन लोक-कलाकारों के बारे में सोचकर अक्सर आंखें भर आती हैं कि मुफ़लिसी में दिन गुज़ारकर भी ये लोग कितनी शिद्दत से अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं, इनके दिल में भले भविष्य की चिंता हो लेकिन चेहरे पर हमेशा एक मुस्कान होती है। मेरी नज़र में संस्कृति की रक्षा के नाम पर गुंडागर्दी वाले समुदाय नहीं बल्कि दूर-दराज़ के क्षेत्रों में रहने वाले ये आदिवासी कलाकार सही मायनों में हमारे देश की संस्कृति के रखवाले हैं और सरकार को इनकी हर संभव मदद करनी चाहिए।
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