पिछले हफ़्ते मुझे अपने शहर में मंत्रमुग्ध कर देने वाली संगीत की महफ़िल में शरीक़ होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। ये महफ़िल सजाई गई थी महाराष्ट्र साहित्य सभा के सभागृह में,जैसा कि नाम से ही आप समझ गए होंगे कि ये आयोजन शहर के संभ्रांत मराठी समुदाय द्वारा किया गया था और मेरे वहां जाने का कारण थे हमारी कंपनी के कर्मठ कर्मचारी और अत्यंत ही प्रतिभाशाली कलाकार श्री प्रदीप विन्चुरकर जी। यहां तयशुदा समय पर ही कार्यक्रम शुरू हुआ और सर्वप्रथम कला की देवी माँ सरस्वती के सामने दीप-प्रज्ज्वलन करने के बाद संगीत से सजी सुरीली शाम का आग़ाज़ किया श्री विन्चुरकर जी और उनकी सुपुत्री अक्षता ने जिनकी तबला-सारंगी की बेजोड़ जुगलबंदी ने अपनी हर एक प्रस्तुति के बाद हम सभी श्रोताओं को तालियां बजाने पर मजबूर कर दिया। अक्षता ने शुरुआत की सारंगी पर शास्त्रीय राग रागेश्री से जो पुराने सदाबहार फ़िल्मी नग़मों पर तबले और सारंगी की जुगलबंदी से होते हुए पुनः शास्त्रीय राग मांड पर समाप्त हुई। इन दोनों कलाकारों की प्रस्तुति में इतनी गहराई थी जो कभी तो पूरे शरीर में सिहरन पैदा कर रही थी तो कभी आंखों में पानी ला रही थी। कला के क्षेत्र में मराठी समुदाय और साहित्य के क्षेत्र में बंगाली समुदाय का जो योगदान है, वो अतुलनीय है। स्वर कोकिला लता मंगेशकर और नोबेल पुरस्कार विजेता रबीन्द्रनाथ टैगोर का उदाहरण हम सबके सामने है। लगभग 45मिनट की इस संगीतमयी यात्रा में आप इस क़दर खो जाते हैं कि अपनी सारी चिंताएं भूलकर बस संगीत के सुरों में डूब जाते हैं। उस समय शायद ऑक्सीजन की जगह संगीत मेरे लिए प्राणवायु का काम कर रहा था। मुझे हमेशा लगता है कि दुनिया के किसी भी धर्म में इतनी ताक़त नहीं जितनी कि संगीत में है। कलाकार के सुर अगर सच्चे हों तो वो आपको उस परम-सत्ता के बहुत नज़दीक ले जा सकते हैं। मेरे विचार में मंदिर में दिन भर पूजा-पाठ करने वाला पंडित भी शायद भगवान के इतने क़रीब नहीं पहुंच सकता, जितना एक संगीत साधक अपनी संगीत साधना के बल पर पहुंच सकता है। शायद अपनी इसी साधना के बल पर तानसेन और बैजू बावरा जैसे महान कलाकार अपने सुरों से दिए जला दिया करते थे और बिन सावन के बादल भी रो पड़ते थे।
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