Friday, 7 May 2021

माँ नर्मदा और मैं

 


मेरे पैतृक निवास-स्थान पर बहने वाली मां रेवा और स्वयंभू बाणलिंग(नर्मदा नदी में मिलने वाले शिवलिंग) का अनुपम दृश्य।

जिस बड़े से पत्थर पर ये शिवलिंग स्थापित है, उसे स्थानीय भाषा में सत्ती कहा जाता है जो नदी के तट पर और नदी के बीच में भी मिलते हैं और मुझे अच्छे से याद है कि ये सत्ती पहले नदी के काफ़ी अंदर हुआ करती थी जो अब इस तस्वीर में पानी के बाहर दिखाई दे रही है। ये मुझे इसलिए याद है कि सभी बच्चों का सपना हुआ करता था इस सत्ती तक पहुंचना क्योंकि तब ये काफ़ी गहरे पानी में हुआ करती थी जहाँ तक सिर्फ़ कुशल तैराक ही पहुंच पाते थे इसीलिये मुझे इस सत्ती तक पहुंचने का सौभाग्य केवल गर्मियों में ही मिलता था, जब सहेलियों का हाथ पकड़कर कंधे तक के पानी के स्तर को पार करके मैं चलते-चलते ही यहाँ तक जाया करती थी क्योंकि मुझे तैरना बिल्कुल नहीं आता था। ऐसा 1-2बार करने से ही मुझे तैरने जैसे आनंद की अनुभूति होती थी।


 


ये हमारा घाट है जो आज भी अपने पुरातन रूप में है जिसमें बहुत प्राचीन मज़बूत पत्थरों की बनी लगभग 100 सीढियां हैं। तस्वीर में बारिश के समय का दृश्य है, आम दिनों में पानी इससे काफ़ी नीचे रहता है और दूर तक फैला रेत का सुंदर तट भी दिखाई देता है। किनारे लगी ऊंची दीवारनुमा सीढियां जिन पर से ये बच्चे नदी में कूदते हुए दिखाई दे रहे हैं, इन्हें स्थानीय लोग हतनी कहते हैं। इन हतनियों पर पुरा-पाषाण काल की मूर्तियां अंकित हैं, लेकिन ज़्यादातर लोग उनके महत्व से अनजान हैं। बारिश के दिनों में ये हतनियाँ स्थानीय लोगों के लिए नदी के जल-स्तर को मापने का सबसे सटीक यंत्र बन जाती हैं। ऐसी कुल 10 हतनियाँ हैं जिनमें से ऊपर की तीन हतनियों के डूबने को ख़तरे की घंटी समझा जाता था जो सौभाग्य से मेरे सामने कभी नहीं हुआ। हमारे बुज़ुर्ग नदी के पानी का रंग देखकर बता दिया करते थे कि पानी अब नीचे उतरेगा या और ऊपर चढ़ेगा?

मेरा पैतृक घर नदी के सबसे नज़दीक होने की वजह से हमें सौभाग्यवश रोज़ सुबह घर की छत से ही माँ पुण्य सलिला और नदी के दूसरे छोर पर स्थित सिद्धनाथ महादेव मंदिर के दर्शन सुलभ थे। दैनिक पूजा के लिए नर्मदा नदी का जल लाना और शाम को नदी के तट पर दीपक लगाने जाना मेरी रोज़मर्रा की दिनचर्या का हिस्सा था। उस समय रेत पर बैठकर क्षितिज में डूबते सूरज को देखना दिन भर की सारी थकान दूर कर देता था। शायद नदी किनारे गुज़ारी शाम के उन्हीं पलों ने मेरे अंदर रचनात्मकता का संचार किया।

कहते हैं नदी किनारे ही सभ्यता का विकास होता है। वहाँ रहने वाली हमारे कुनबे की तब तक सात पीढियां हो चुकी थीं और अब तो लगभग 10पीढियां हो चुकी हैं। तीन भाई जो यूपी में सरयू पार से आकर नर्मदा किनारे बसे और खेती करने लगे जिनका आगे चलकर इतना विशाल परिवार बना। हम सभी परिवारों के घर लगभग 100साल पुराने थे, जिनमें कई कमरे, आगे एक बड़ा सा आंगन और पीछे एक बगीचा होता था। इसी बगीचे के बीच से एक दीवार बनाकर उस तरफ़ के हिस्से में घर के बाहर बाथरूम, शौचालय और बर्तन धोने की जगह बनाई गई थी। मेरे घर का आधा हिस्सा तब तक आधुनिक युग की भवन निर्माण शैली में तब्दील हो चुका था लेकिन पूजा का कमरा, रसोई और मेरी दादी के कमरे सहित घर का दूसरा हिस्सा तब भी अपने मूल स्वरूप में सुरक्षित था। आजकल ऐसे घरों को कॉटेज का नाम देकर पर्यटन उद्योग वाले सैलानियों से हज़ारों-लाखों का किराया ले लेते हैं लेकिन उस समय हर चीज़ से पैसा बनाने की प्रवृति लोगों में नहीं थी। दुर्भाग्यवश आज उन सुंदर प्राकृतिक वातानुकूलित घरों की जगह गगनचुंबी इमारतों ने ले ली है।

हमारे इतने बड़े परिवार में लगभग हर दूसरे महीने सूतक होता था क्योंकि ख़ानदान में 80साल से ऊपर बुज़ुर्गो की संख्या काफ़ी अधिक थी😛 हर दिवाली और नवरात्रि में सब भगवान से प्रार्थना करते थे कि कम से कम इस दौरान कोई सूतक न हो ताकि हम अच्छे से ये पर्व मना सकें। इस 13दिन के सूतक के दौरान परिवार के सभी घरों में काफ़ी नियमों का पालन करना होता था जिसमें प्रमुख था ख़ानदान के सभी औरतों और आदमियों का पूरे 13दिनों तक रोज़ नर्मदा नदी में जाकर स्नान करना। इसी तरह नवरात्रि में नवमीं की पूजा के पहले सभी पुरुष नर्मदाजी में स्नान करके बिना किसी अन्य वस्तु/व्यक्ति को स्पर्श किये सीधे पूजाघर में प्रवेश करते थे।

नवंबर माह की कड़कड़ाती सर्दी में सुबह 4बजे उठकर नर्मदा नदी में पूरे 1माह तक कार्तिक स्नान करना हो, नदी किनारे सबसे ऊंची चट्टान पर स्थित "पागल बाबा" के आश्रम में जाकर कन्या-भोजन करना हो जहां सभी जाति-धर्म की कन्याओं को बुलाकर उनका पूजन किया जाता था या लोकपर्व भुजरिया विसर्जन के समय नदी के तट पर बिखरी पीले रंग की छटा को निहारना, माँ नर्मदा से जुड़ी ये यादें मेरे जीवन की सबसे अनमोल स्मृतियां हैं।
हर हर नर्मदे।

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