Wednesday, 22 April 2020

EARTH DAY

आज पृथ्वी दिवस है और इस समय खुद को पृथ्वी का मालिक समझने वाले इंसान अपने-अपने घरों में क़ैद हैं। सन 2007 से दुनिया के कई देशों में मार्च के आख़री सप्ताह में अर्थ आवर मनाया जाता रहा है, जिसके तहत सभी लोग, समुदाय और व्यावसायिक संगठन भी पूरे 1 घन्टे के लिए अपनी ग़ैर-ज़रूरी लाइट्स को बंद कर देते हैं। शायद इसी से प्रेरित होकर गत  5 अप्रैल को हमारे प्रधानमंत्री जी ने रात के 9 बजे 9 मिनट तक देश की जनता से अपने घरों की लाइट बंद कर दीपक लगाकर रौशनी करने की अपील की, जिसे लोगों ने अपना भरपूर सहयोग दिया।
टाइम पर्सन ऑफ़ द ईयर 2019 स्वीडन की ग्रेटा थन्बर्ग ने बढ़ते जलवायु परिवर्तन के ख़तरे की तरफ़ दुनिया का ध्यान खींचा है, लेकिन बड़े विकसित देश इस ख़तरे को जानकर भी अनजान बने रहना चाहते हैं। यही कारण है कि पिछले साल अमेरिका ने पेरिस समझौते से अपने हाथ खींच लिए। पेरिस समझौता साल 2015 में संयुक्त राष्ट्र संघ के लगभग 200 सदस्य देशों के बीच जलवायु परिवर्तन के विषय में पेरिस में की गयी एक संधि है जिसके अंतर्गत इस संधि को मानने वाले देशों के लिए ग्रीन हाउस गैसों और कार्बन उत्सर्जन को संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा निर्धारित अंतर्राष्ट्रीय मानक के भीतर रखना अनिवार्य है। पेरिस समझौता ग्लोबल वार्मिंग कम करने की दिशा में एक सकारात्मक क़दम था; आज स्कूल में पढ़ने वाला बच्चा भी इस थ्योरी से वाक़िफ़ है कि विभिन्न कारख़ानों और वाहनों से निकलने वाले कार्बन के कण धरती के तापमान में वृद्धि करते हैं जिससे सुदूर ध्रुवों पर स्थित ग्लेशियरों की बर्फ़ पिघलने लगती है और समुद्र के जल-स्तर में अप्रत्याशित बढ़ोत्तरी होती है। भू-वैज्ञानिकों का दावा है कि समुद्र का जल-स्तर बढ़ने से समुद्र किनारे बसे दुनिया के कई शहर जलमग्न हो सकते हैं।
पृथ्वी पर ग्रीन हाउस गैसों का सर्वाधिक उत्सर्जन करने वाले देश क्रमशः चीन, अमेरिका और भारत हैं। चीन ने पारंपरिक जीवाष्म ईंधन के विकल्प के तौर पर रिन्यूएबल ऊर्जा स्रोतों का इस्तेमाल शुरू किया और आज सोलर पैनल, पवन चक्कियों और इलेक्ट्रिक गाड़ियों का सबसे बड़ा उत्पादक, निर्यातक और निवेशक है। चीन  लगातार अपने बड़े-बड़े कोयला आधारित प्लांट्स को नवीकरणीय ऊर्जा स्त्रोत आधारित प्लांट्स में बदल रहा है; हालाँकि ये निर्णय चीन ने सिर्फ पर्यावरण सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए लिए हों इसमें मुझे संदेह है! संभव है कि ये बदलाव मध्य-पूर्व के खाड़ी देशों पर तेल के लिए अपनी निर्भरता कम करने और वैश्विक महाशक्ति बनने की चीनी महत्वाकांक्षा की नीति का हिस्सा भर हों.... जो भी हो लेकिन ये बदलाव पृथ्वी और पर्यावरण के लिए सकारात्मक हैं। 
जैसा कि मैंने बताया कि अमेरिका ने पेरिस संधि को मानने से यह कहते हुए इंकार कर दिया है कि ये उसकी आर्थिक प्रगति में बाधक है। अमेरिका एक पूंजीवादी देश है जहाँ औद्योगिक क्रांति की शुरुआत हुई। यही कारण है कि पूरी दुनिया की महज़ 5 % अमेरिकी आबादी विश्व के प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करने में सबसे आगे है। अकेले अमेरिका में ऊर्जा की खपत पूरे विश्व की कुल ऊर्जा ख़पत का 24 % है जो विश्व में सर्वाधिक है। पूरी दुनिया से निकले कूड़े-कचरे में भी सबसे अधिक 40 % का योगदान अमेरिका का ही है। इसी प्रकार पूरी दुनिया में अमेरिकियों का जीवन-स्तर भी सबसे ऊंचा है क्योंकि अमेरिकन डॉलर विश्व की सबसे मज़बूत और सर्वमान्य मुद्रा है और अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में सोने तथा कच्चे तेल की क़ीमतें भी डॉलर में निर्धारित होती हैं। चाहे मांस हो या कोकाकोला, खाद्य पदार्थों की खपत के मामले में भी अमेरिकी सबसे आगे हैं। अमेरिका की दोषपूर्ण जीवन-शैली का ही नतीजा है कि अमेरिकियों के खानपान में कैलोरी, शुगर और फैट का प्रतिशत भी दुनिया में सर्वाधिक है और वहां की एक बड़ी आबादी मोटापे की समस्या से ग्रसित है।  इतने वर्षों में इस तरह के खानपान ने अमेरिकियों के प्रतिरक्षा तंत्र (Immune system) को बुरी तरह प्रभावित किया जिसकी परिणति हमें इस कोरोना काल में देखने को मिल रही है जिसमें रोग प्रतिरोधक क्षमता कमज़ोर होने के कारण अमेरिका में कोरोना से मरने वालों का आंकड़ा भी दुनिया में शीर्ष पर पहुँच चुका है। शोधार्थियों का मत है कि अगर दुनिया के सारे लोग अमेरिकियों की तरह संपन्न जीवन जीने लगें तो हमें जीने के लिए 4 पृथ्वी की ज़रूरत पड़ेगी। 
बात करें अगर भारत की तो विश्व के सर्वाधिक प्रदूषित 10 शहर भारत में ही हैं, राज़धानी दिल्ली और आसपास के क्षेत्रों की हवा सांस लेने लायक भी नहीं बची है। राज़धानी को प्रदूषण-मुक्त करने के लिए कभी दिल्ली सरकार ऑड-ईवन का फ़ॉर्मूला लागू करती है तो कभी पडोसी हरियाणा के किसानों के खेतों की पराली को दिल्ली के प्रदूषण के लिए ज़िम्मेदार ठहराती है वहीं सर्वोच्च न्यायालय भी प्रदुषण रोकने के लिए हर साल दिवाली के समय सक्रिय हो जाता है और पटाख़े जलाने या बेचने पर प्रतिबन्ध लगाकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेता है। दिल्ली में यमुना लगभग एक गंदे नाले में परिवर्तित हो चुकी है वहीं उत्तर प्रदेश में जीवनदायिनी गंगा नदी इतनी प्रदूषित है कि लगता है मानों उसे साफ़ करने के लिए किसी क़ो भागीरथ की तरह तपस्या करनी होगी क्योंकि विभिन्न सरकारें करोड़ों रूपए ख़र्च करने के बाद भी गंगा को उसके पुराने स्वरुप में नहीं ला पा रही हैं। उत्तर प्रदेश में अनगिनत कसाईखाने (Slaughter house) भूमिगत जल को लगातार प्रदूषित कर रहे हैं। भारत में पैदल या सायकल से चलना लोगों की शान के ख़िलाफ़ है वो भी तब जब डाइबिटीज़ भारत का राष्ट्रीय रोग बन चुका है। 
जिस तरह 20 वीं सदी के अंत में ही गूगल और अमेज़ॉन जैसी टेक्नोलॉजी कंपनियों ने आने वाली सदी की संभावनाओं और आवश्यकताओं को भांपकर अपने क़ारोबार का विस्तार किया और संचार क्रांति के माध्यम से दुनिया की तस्वीर बदल दी, ठीक ऐसे ही वर्तमान में इलेक्ट्रिक वाहन निर्माता कंपनी टेस्ला ने आने वाली सदी की ट्रांसपोर्टेशन आवश्यकताओं का अनुमान लगा लिया है जब दुनिया में कच्चे तेल के भंडार लगभग ख़त्म हो चुके होंगे और ऑटोमोबाइल सेक्टर में बैटरी और सौर ऊर्जा से चलने वाली गाड़ियों का क़ब्ज़ा होगा और कंपनी लगातार इस तरह के वाहनों का निर्माण कर रही है। कभी आसमान छूने वाली कच्चे तेल की क़ीमतें आज कोरोना महामारी के कारण विश्वव्यापी लॉकडाउन के इस दौर में धराशायी हो चुकी हैं। शायद इन्ही वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों के बढ़ते प्रचलन को भांपकर ही पिछले कई वर्षों से यूएई और सऊदी अरब जैसे खाड़ी देश अपनी तेल आधारित अर्थव्यवस्था को पर्यटन आधारित बनाने में लगे हुए हैं। 
कुल मिलाकर सार ये है कि जलवायु परिवर्तन या ग्लोबल वॉर्मिंग जैसे मुद्दे विश्व के विकसित देशों के कद्दावर नेताओं की प्राथमिकता सूची में नहीं आते क्योंकि ये न ही उनके देश को कोई आर्थिक फ़ायदा पहुंचा सकते हैं न ही उन्हें व्यक्तिगत रूप से कोई राजनीतिक फ़ायदा। दूसरी तरफ़ भारत जैसे विकासशील देश हैं जो प्रदुषण से बुरी तरह ग्रस्त हैं लेकिन उनके पास संसाधनों और मज़बूत इच्छाशक्ति की कमी है। इस सबके बीच इस वैश्विक महामारी के दौर में ऐसा लग रहा है जैसे पृथ्वी ने अपने अस्तित्व को बचाने का रास्ता ख़ुद ही निकाल लिया है और समझदार मानव जाति को पृथ्वी का ये इशारा समझने की बहुत ज़रूरत है।
 

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