पिछले वर्ष मातृ दिवस के दिन ही काफ़ी समय के बाद मुझे पंडित विजयशंकर मेहता जी को पुनः सुनने का सौभाग्य मिला था जिसका विषय था "संबंधों में समरसता के सूत्र", आज उसी दिन की घटना का मुझे स्मरण हो आया है जो आप सबको बताना चाहती हूं....
उस दिन सभागृह में पंडितजी रिश्तों की महत्ता का बखान कर रहे थे और बता रहे थे कि अमेरिका के लोगों की जीवनशैली को आदर्श मानकर हम किस तरह अपनी जड़ों यानी कि अपने रिश्तों से दूर होते जा रहे हैं और मुझे वहीं बैठे-बैठे इसका उदाहरण भी देखने को मिल गया। हुआ यूं कि मेरी बगल वाली कुर्सी पर ही किसी संभ्रांत मध्यम वर्गीय परिवार की लगभग 70वर्षीय एक शिक्षित बुज़ुर्ग विधवा महिला बैठी हुई थीं जो व्याख्यान सुनने अकेली आयी थीं। व्याख्यान शुरू होने के पहले मेरा उनसे परिचय हुआ और बातों-बातों में उन्होंने व्याख्यान ख़त्म होने के बाद वापिस घर जाने के बारे में अपनी चिंता ज़ाहिर की और मुझसे पूछने लगीं कि यहां से साकेत जाने के लिए रात में साधन कैसे और कहां से मिलेगा क्योंकि पंडितजी का व्याख्यान शाम 6:30बजे से था जो लगभग 1घंटा विलंब से शुरू हुआ। उन्होंने मुझे बताया कि आते समय तो उनके बेटे ने उन्हें ऑटो में बिठा दिया था जिससे वो सकुशल अपने गंतव्य तक पहुंच गईं लेकिन अब कार्यक्रम में देरी की वजह से घर लौटने को लेकर उनके माथे पर चिंता की लकीरें साफ़ देखी जा सकती थीं क्योंकि वो व्याख्यान बीच में अधूरा छोड़कर जाना भी नहीं चाहती थीं,तब मैंने उनसे कहा कि आप चिंता न करें, हम लोग आपको साकेत पर छोड़ते हुए निकल जाएंगे। ये सुनते ही उनके चेहरे पर राहत और इतमीनान के भाव आ गए और वो तल्लीनता से पंडितजी को सुनने लगीं लेकिन तभी कार्यक्रम के बीच में 2-3बार बिजली गुल होने पर संचालिका ने मंच से अनाउंस किया कि बाहर तेज़ हवा-आंधी का मौसम होने की वजह से बार-बार लाइट जा रही है। ऐसा सुनते ही वो पुनः चिंतित हो उठीं और बहुत गिड़गिड़ाते स्वर में उन्होंने मुझसे फ़िर पूछा-"बेटा, मुझे अपने साथ ले चलोगे न?" और मैंने भी फ़िर से वही दोहराया - "आंटी,आप टेंशन न लो,हम लोग आपको छोड़ देंगे।" फ़िर लगभग 10बजे कार्यक्रम समाप्त हुआ और हम लोग वहां से घर के लिए निकले लेकिन तब तक मेरे मन में बहुत से सवाल जन्म ले चुके थे क्योंकि मुझे बहुत हैरत हो रही थी कि शाम 6:30से10बजे तक के साढ़े तीन घंटे के समय में उनके घर से उनके पास किसी का कॉल नहीं आया और वो भी तब जब बाहर मौसम भी इतना ख़राब हो चुका था लेकिन उनके परिवार में किसी को नहीं पड़ी थी कि ऐसे मौसम में 70साल की एक बुज़ुर्ग महिला घर कैसे पहुंचेगी,वो इस समय कहाँ है, उसे लौटने का कोई साधन मिला या नहीं,कहीं अचानक उसकी तबीयत तो ख़राब नहीं हो गयी? हालांकि मुझे नहीं पता कि उनके पास फ़ोन था भी या नहीं लेकिन अगर फ़ोन नहीं था तो ये तो और भी चिंताजनक है। इतने में रास्ते में जब हम कंचन बाग़ कॉलोनी की तरफ़ से गुज़रे तब उन्होंने बताया कि मेरे एक बेटा-बहु यहीं रहते हैं और एक बेटा-बहु मेरे साथ रहते हैं, लेकिन तब भी मम्मी या मेरी हम दोनों में से किसी की उनसे पूछने की हिम्मत नहीं हुई कि आपका बेटा आपको लेने क्यों नहीं आया क्योंकि तब तक हम दोनों अपने मन में सारी कहानी समझ चुके थे। पर तब तक उन महिला का दर्द भी ज़ुबान पर आ ही गया जब उन्होंने कहा कि "मेरा बेटा मुझे लेने आता लेकिन शाम को उसकी साली आ गयी तो वो लोग सब बाहर घूमने चले गए हैं।" फ़िर उन्होंने हंसते हुए कहा कि "साली तो घरवाली से भी बड़ी होती है"। इसके बाद वो साकेत चौराहे पर उतर गयीं और अपने बेटे के हिस्से का ढेर सारा आशीर्वाद भी मुझे दे गयीं और मेरे ज़ेहन में बस एक सवाल छोड़ गयीं कि "क्या साली माँ से भी बड़ी होती है"??
उस दिन सभागृह में पंडितजी रिश्तों की महत्ता का बखान कर रहे थे और बता रहे थे कि अमेरिका के लोगों की जीवनशैली को आदर्श मानकर हम किस तरह अपनी जड़ों यानी कि अपने रिश्तों से दूर होते जा रहे हैं और मुझे वहीं बैठे-बैठे इसका उदाहरण भी देखने को मिल गया। हुआ यूं कि मेरी बगल वाली कुर्सी पर ही किसी संभ्रांत मध्यम वर्गीय परिवार की लगभग 70वर्षीय एक शिक्षित बुज़ुर्ग विधवा महिला बैठी हुई थीं जो व्याख्यान सुनने अकेली आयी थीं। व्याख्यान शुरू होने के पहले मेरा उनसे परिचय हुआ और बातों-बातों में उन्होंने व्याख्यान ख़त्म होने के बाद वापिस घर जाने के बारे में अपनी चिंता ज़ाहिर की और मुझसे पूछने लगीं कि यहां से साकेत जाने के लिए रात में साधन कैसे और कहां से मिलेगा क्योंकि पंडितजी का व्याख्यान शाम 6:30बजे से था जो लगभग 1घंटा विलंब से शुरू हुआ। उन्होंने मुझे बताया कि आते समय तो उनके बेटे ने उन्हें ऑटो में बिठा दिया था जिससे वो सकुशल अपने गंतव्य तक पहुंच गईं लेकिन अब कार्यक्रम में देरी की वजह से घर लौटने को लेकर उनके माथे पर चिंता की लकीरें साफ़ देखी जा सकती थीं क्योंकि वो व्याख्यान बीच में अधूरा छोड़कर जाना भी नहीं चाहती थीं,तब मैंने उनसे कहा कि आप चिंता न करें, हम लोग आपको साकेत पर छोड़ते हुए निकल जाएंगे। ये सुनते ही उनके चेहरे पर राहत और इतमीनान के भाव आ गए और वो तल्लीनता से पंडितजी को सुनने लगीं लेकिन तभी कार्यक्रम के बीच में 2-3बार बिजली गुल होने पर संचालिका ने मंच से अनाउंस किया कि बाहर तेज़ हवा-आंधी का मौसम होने की वजह से बार-बार लाइट जा रही है। ऐसा सुनते ही वो पुनः चिंतित हो उठीं और बहुत गिड़गिड़ाते स्वर में उन्होंने मुझसे फ़िर पूछा-"बेटा, मुझे अपने साथ ले चलोगे न?" और मैंने भी फ़िर से वही दोहराया - "आंटी,आप टेंशन न लो,हम लोग आपको छोड़ देंगे।" फ़िर लगभग 10बजे कार्यक्रम समाप्त हुआ और हम लोग वहां से घर के लिए निकले लेकिन तब तक मेरे मन में बहुत से सवाल जन्म ले चुके थे क्योंकि मुझे बहुत हैरत हो रही थी कि शाम 6:30से10बजे तक के साढ़े तीन घंटे के समय में उनके घर से उनके पास किसी का कॉल नहीं आया और वो भी तब जब बाहर मौसम भी इतना ख़राब हो चुका था लेकिन उनके परिवार में किसी को नहीं पड़ी थी कि ऐसे मौसम में 70साल की एक बुज़ुर्ग महिला घर कैसे पहुंचेगी,वो इस समय कहाँ है, उसे लौटने का कोई साधन मिला या नहीं,कहीं अचानक उसकी तबीयत तो ख़राब नहीं हो गयी? हालांकि मुझे नहीं पता कि उनके पास फ़ोन था भी या नहीं लेकिन अगर फ़ोन नहीं था तो ये तो और भी चिंताजनक है। इतने में रास्ते में जब हम कंचन बाग़ कॉलोनी की तरफ़ से गुज़रे तब उन्होंने बताया कि मेरे एक बेटा-बहु यहीं रहते हैं और एक बेटा-बहु मेरे साथ रहते हैं, लेकिन तब भी मम्मी या मेरी हम दोनों में से किसी की उनसे पूछने की हिम्मत नहीं हुई कि आपका बेटा आपको लेने क्यों नहीं आया क्योंकि तब तक हम दोनों अपने मन में सारी कहानी समझ चुके थे। पर तब तक उन महिला का दर्द भी ज़ुबान पर आ ही गया जब उन्होंने कहा कि "मेरा बेटा मुझे लेने आता लेकिन शाम को उसकी साली आ गयी तो वो लोग सब बाहर घूमने चले गए हैं।" फ़िर उन्होंने हंसते हुए कहा कि "साली तो घरवाली से भी बड़ी होती है"। इसके बाद वो साकेत चौराहे पर उतर गयीं और अपने बेटे के हिस्से का ढेर सारा आशीर्वाद भी मुझे दे गयीं और मेरे ज़ेहन में बस एक सवाल छोड़ गयीं कि "क्या साली माँ से भी बड़ी होती है"??
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