हिन्दू पौराणिक मान्यताओं के अनुसार क्षीर सागर में विराजने वाले दशावतार भगवान विष्णु धर्म की रक्षार्थ हर युग में पृथ्वी पर जन्म लेते हैं; कभी किसी पशु या जलचर के रूप में, किसी युग में श्री हरि ब्राह्मण ऋषि बनते हैं तो किसी युग में क्षत्रिय राजकुमार या एक साधारण ग्वाला । सदा से जातिगत भेदभाव का आक्षेप झेल रहे हिन्दू धर्म की ये बात उल्लेखनीय है कि स्वयं भगवान ने अवतार लेने के लिए किसी तथाकथित उच्च जाति विशेष को नहीं चुना.. आज की आरक्षण व्यवस्था के अनुसार देखा जाए तो भगवान श्रीकृष्ण अन्य पिछड़ी जाति (OBC) से ताल्लुक रखते हैं । संभव है कि ग़रीब ब्राह्मण सुदामा जिसके पास द्वापर युग में भी खाने को अन्न नहीं था उसकी पीढ़ियाँ आज कलियुग में भी ग़रीब ही हों, वहीं यादव कुल के श्रीकृष्ण के वंशज यूपी-बिहार जैसे प्रदेशों में दबंगई करते फिरते हैं लेकिन फिर भी उन्हे पिछड़ी जाति को मिलने वाला आरक्षण प्राप्त है । मान्यता है कि महात्मा बुद्ध भी भगवान विष्णु का ही अवतार हैं लेकिन बौद्ध इससे इत्तेफाक़ नहीं रखते, ज़ाहिर है कि गौतम बुद्ध को भगवान विष्णु का अवतार मानना बौद्ध धर्म के अस्तित्व के लिए आत्मघाती क़दम साबित हो सकता है । ग़ौरतलब है कि कलियुग में जब पाप अपनी चरम सीमा पर होगा तब श्री हरि के दसवें अवतार भगवान कल्कि जन्म लेंगे जिनका चित्रण एक सफ़ेद घोड़े पर तलवार लिए किया जाता है जो कलियुग का अंत करके पुनः सतयुग का प्रारम्भ करेंगे। सुनने में ये किसी पाश्चात्य परी-कथा की कल्पना लगती है जिसमे राजकुमारी अपने सपनों के राजकुमार की राह देखती रहती है जो एक दिन सफ़ेद घोड़े पर आकर उसे ऐसी दुनिया में उड़ा ले जाएगा जहां सिर्फ़ प्यार हो और नफ़रतों के लिए कोई जगह न हो ।
भगवान विष्णु के अब तक हुए सभी अवतारों में श्रीराम और श्रीकृष्ण जन-साधारण में सर्वाधिक लोकप्रिय हुए हैं क्योंकि इन्हे घर-घर में पूजा जाता रहा है । भगवान श्रीराम त्रेता युग में पैदा हुए तो भगवान कृष्ण द्वापर में जिसके बाद ही कलियुग का आरंभ माना जाता है । इन दोनों ही ने अपने-अपने युग में धर्म की पुनः स्थापना की जिनकी लीलाओं का वर्णन हम आज कलियुग में करते हैं । इनका जीवन-दर्शन कलियुग में हमें धर्म के मार्ग पर चलते रहने की प्रेरणा देता है । लेकिन इन दोनों के व्यक्तित्व में ज़मीन-आसमान का अंतर है ।
एक तरफ़ जहां भगवान राम अयोध्या के महल में पैदा हुए वहीं भगवान कृष्ण मथुरा के कारागृह में, श्रीराम का बचपन क्षत्रिय कुल के राजकुमार के रूप में बीता तो श्रीकृष्ण का बचपन गाय चराने वाले ग्वाले के रूप में... लेकिन समय के फेर से भगवान भी नहीं बच सके ! महलों में पले-बढ़े राम को अपना राज्याभिषेक छोडकर 14 वर्षों का वनवास भोगना पड़ा और वनवासी कहलाए वहीं गोकुल की गलियों में खेलने वाले कृष्ण को राजपाट का सुख मिला और वे द्वारकाधीश कहलाए । प्रभु श्रीराम बचपन से ही जितने धीर-गंभीर प्रकृति के थे श्रीकृष्ण उतने ही नटखट और चंचल स्वभाव के थे। रामभक्त गोस्वामी तुलसीदासजी ने श्रीराम की बाल्यावस्था का वर्णन करते हुए लिखा है कि
"ठुमक चलत रामचंद्र बाजत पैजनियाँ ,
तुलसीदास अति आनंद देखके मुखारविंद ,
रघुवर छबि के समान रघुवर छबि बनियाँ ,
ठुमक चलत रामचंद्र बाजत पैजनियाँ। "
वहीँ वात्सल्य रस के शिरोमणि कवि सूरदास जी के शब्दों में बालगोपाल कृष्ण माता यशोदा के डांटने पर उनसे बड़ी ही मासूमियत से कहते हैं कि
"मैया मोरी मैं नहिं माखन खायो ,
भोर भये गैयन के पाछे, मधुबन मोहि पठायो। "
भगवान विष्णु के इन दोनों रूपों के चरित्र में इतना अधिक विरोधाभास है कि जहाँ एक तरफ़ प्रभु श्रीराम शिवजी के धनुष पिनाकी का विग्रह करके माता सीता के स्वयंवर को जीतने के उपरांत सीताजी का वरण करते हैं वहीं रुक्मणी से विवाह के लिए श्रीकृष्ण सारी परंपराओं को तोड़कर उन्हें भगा ले जाते हैं। जहाँ श्रीराम सदैव एक पत्नीधारी रहने का सीता जी को वचन देते हैं वहीं श्रीकृष्ण की अनेक रानियां हैं और राधा उनका सच्चा प्रेम है लेकिन राधा से उन्होंने विवाह नहीं किया । "रघुकुल रीत सदा चली आयी, प्राण जाये पर वचन न जाये ", श्रीराम अपने कुल की इसी विशेषता का अनुसरण करते हुए सदा अपने वचनों पर अडिग रहते हैं परंतु श्रीकृष्ण राधारानी से किये अपने वादे भूल जाते हैं। क्षत्रिय योद्धा श्रीराम ने कभी रण में पीठ नहीं दिखाई लेकिन श्रीकृष्ण को जरासंध से युद्ध में रणभूमि छोड़कर भागना पड़ा, इसीलिए उन्हें रणछोड़ दास भी कहा जाता है। भगवान कृष्ण ने मनुष्य रूप में जन्म लेने के बाद भी अपने जन्म के समय से ही कई अद्भुत चमत्कार दिखाने शुरू कर दिए थे जबकि भगवान राम ने श्री विष्णु का अवतार होते हुए भी रावण वध हेतु वानरों की सहायता ली। गौतम ऋषि के श्राप से देवी अहिल्या को मुक्त करने वाले राम जब अयोध्या लौटते हैं तो अयोध्या के लोग दीपोत्सव मानते हैं लेकिन वहीं दूसरी ओर अपने सौ पुत्रों की मृत्यु से आहत गांधारी के श्राप से कृष्ण अपनी द्वारका नगरी को नहीं बचा पाते, ऐसी मान्यता है कि इसी श्राप के प्रभाव से द्वारका हर युग में समुद्र में समा जाती है और यही डूबी हुई नगरी आज की द्वारका के समीप बेट द्वारका के नाम से प्रसिद्द है जहाँ समुद्र में एक प्राचीन विकसित नगर के अवशेष पाए गए हैं। आपमें से कइयों के मन में शायद ये विचार चल रहा होगा कि श्रीराम को गृहस्थ जीवन का सुख नहीं मिला और श्रीकृष्ण ने अपनी समस्त रानियों के साथ गृहस्थ जीवन का आनंद उठाया , जहाँ प्रभु श्रीराम गृहस्थ होकर भी गृहस्थ जीवन के बंधनों से मुक्त दिखाई पड़ते हैं वहीँ श्रीकृष्ण ने तो मथुरा से लेकर द्वारका तक सबको अपनी माया में बांध रखा है लेकिन फ़िर भी मेरे विचार में श्रीराम सांसारिक माया से विरक्त नहीं हैं जबकि श्रीकृष्ण मुझे संसार के रिश्ते-नातों के प्रति निर्मोही दिखाई पड़ते हैं। ऐसा मुझे इसलिए लगता है क्योंकि रावण द्वारा सीता जी के हरण के पश्चात् श्रीराम किसी भी साधारण मनुष्य की तरह ही अपनी पत्नी के वियोग में संताप करते हैं जबकि दूसरी ओर श्रीकृष्ण सभी गोकुल वासियों और गोपियों को अपने विरह में छोड़कर मथुरा आ जाते हैं और फ़िर कभी वापिस नहीं जाते बल्कि उद्धव जी से गोपियों के लिए सन्देश भी भिजवाते हैं कि वे उन्हें भूल जाएं। फ़िर आगे चलकर श्रीकृष्ण महाभारत के युद्ध में भी अर्जुन को गीता का यही उपदेश देते हैं कि "मनुष्य शरीर नश्वर है केवल आत्मा अमर है इसलिए हे पार्थ! तू सांसारिक रिश्तों की इस माया से निकलकर अधर्म के विरुद्ध धर्म की इस लड़ाई का प्रतिनिधित्व कर। " श्री सीता-राम के वैवाहिक जीवन का दुखद अंत होने के बावजूद उनकी प्रेम कहानी आदर्श है जबकि श्री राधा-कृष्ण का नाम एक अधूरी प्रेम कहानी का पर्याय है किंतु राधा-कृष्ण का पवित्र प्रेम किसी भी सांसारिक रिश्ते की मर्यादा में बांधा नहीं जा सकता क्योंकि उस प्रेम की कोई थाह नहीं पा सकता।
रामायण मूल रूप से दक्षिण भारत की कथा मानी जाती है और महाभारत उत्तर भारत की, लेकिन जहाँ एक तरफ उत्तर भारत के मंदिरों में विष्णु भगवान के राम और कृष्ण अवतारों की पूजा होती है वहीं दक्षिण भारत के अधिकांश मंदिरों में इन अवतारों की बजाय श्री विष्णु की ही अलग-अलग रूपों में पूजा की जाती है जिन्हें आंध्र प्रदेश में तिरुपति बालाजी तो केरल में पद्मनाभ स्वामी के नाम से जाना जाता है।
संक्षेप में कहें तो श्रीराम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं तो श्रीकृष्ण की लीलाएं सारी परंपराओं और मर्यादाओं के दायरे से परे हैं ; श्रीराम सदैव धर्म के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते हैं तो श्रीकृष्ण कर्म के मार्ग पर.. और मनुष्य का कर्म ही उसका धर्म है। श्रीमदभागवत गीता विश्व का एकमात्र ऐसा धार्मिक ग्रंथ है जो किसी देवी-देवता की स्तुति या उनके चमत्कारों की कथा से बढ़कर निरपेक्ष रूप से मनुष्य को केवल और केवल अपने कर्म करने की शिक्षा देता है। आज समस्त भौतिक सुख-सुविधाओं के होते हुए भी मनुष्य के जीवन में नैराश्य और नकारात्मकता हावी होती जा रही है, विश्व की एक बड़ी आबादी मानसिक अवसाद से ग्रसित है, ऐसे में विभिन्न धर्म-समुदाय की सीमाओं से परे जाकर कर्म-प्रधान ग्रंथ गीता सम्पूर्ण मानव जाति के लिए भारत की एक अनमोल भेंट है।
"कर्मण्ये वाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन " अर्थात तेरा कर्म करने में ही अधिकार है , उसके फलों में कभी नहीं.. जीवन को चलायमान रखने के लिए ये वाक्य निःसन्देह ही संजीवनी बूटी के समान है।
भगवान विष्णु के अब तक हुए सभी अवतारों में श्रीराम और श्रीकृष्ण जन-साधारण में सर्वाधिक लोकप्रिय हुए हैं क्योंकि इन्हे घर-घर में पूजा जाता रहा है । भगवान श्रीराम त्रेता युग में पैदा हुए तो भगवान कृष्ण द्वापर में जिसके बाद ही कलियुग का आरंभ माना जाता है । इन दोनों ही ने अपने-अपने युग में धर्म की पुनः स्थापना की जिनकी लीलाओं का वर्णन हम आज कलियुग में करते हैं । इनका जीवन-दर्शन कलियुग में हमें धर्म के मार्ग पर चलते रहने की प्रेरणा देता है । लेकिन इन दोनों के व्यक्तित्व में ज़मीन-आसमान का अंतर है ।
एक तरफ़ जहां भगवान राम अयोध्या के महल में पैदा हुए वहीं भगवान कृष्ण मथुरा के कारागृह में, श्रीराम का बचपन क्षत्रिय कुल के राजकुमार के रूप में बीता तो श्रीकृष्ण का बचपन गाय चराने वाले ग्वाले के रूप में... लेकिन समय के फेर से भगवान भी नहीं बच सके ! महलों में पले-बढ़े राम को अपना राज्याभिषेक छोडकर 14 वर्षों का वनवास भोगना पड़ा और वनवासी कहलाए वहीं गोकुल की गलियों में खेलने वाले कृष्ण को राजपाट का सुख मिला और वे द्वारकाधीश कहलाए । प्रभु श्रीराम बचपन से ही जितने धीर-गंभीर प्रकृति के थे श्रीकृष्ण उतने ही नटखट और चंचल स्वभाव के थे। रामभक्त गोस्वामी तुलसीदासजी ने श्रीराम की बाल्यावस्था का वर्णन करते हुए लिखा है कि
"ठुमक चलत रामचंद्र बाजत पैजनियाँ ,
तुलसीदास अति आनंद देखके मुखारविंद ,
रघुवर छबि के समान रघुवर छबि बनियाँ ,
ठुमक चलत रामचंद्र बाजत पैजनियाँ। "
वहीँ वात्सल्य रस के शिरोमणि कवि सूरदास जी के शब्दों में बालगोपाल कृष्ण माता यशोदा के डांटने पर उनसे बड़ी ही मासूमियत से कहते हैं कि
"मैया मोरी मैं नहिं माखन खायो ,
भोर भये गैयन के पाछे, मधुबन मोहि पठायो। "
भगवान विष्णु के इन दोनों रूपों के चरित्र में इतना अधिक विरोधाभास है कि जहाँ एक तरफ़ प्रभु श्रीराम शिवजी के धनुष पिनाकी का विग्रह करके माता सीता के स्वयंवर को जीतने के उपरांत सीताजी का वरण करते हैं वहीं रुक्मणी से विवाह के लिए श्रीकृष्ण सारी परंपराओं को तोड़कर उन्हें भगा ले जाते हैं। जहाँ श्रीराम सदैव एक पत्नीधारी रहने का सीता जी को वचन देते हैं वहीं श्रीकृष्ण की अनेक रानियां हैं और राधा उनका सच्चा प्रेम है लेकिन राधा से उन्होंने विवाह नहीं किया । "रघुकुल रीत सदा चली आयी, प्राण जाये पर वचन न जाये ", श्रीराम अपने कुल की इसी विशेषता का अनुसरण करते हुए सदा अपने वचनों पर अडिग रहते हैं परंतु श्रीकृष्ण राधारानी से किये अपने वादे भूल जाते हैं। क्षत्रिय योद्धा श्रीराम ने कभी रण में पीठ नहीं दिखाई लेकिन श्रीकृष्ण को जरासंध से युद्ध में रणभूमि छोड़कर भागना पड़ा, इसीलिए उन्हें रणछोड़ दास भी कहा जाता है। भगवान कृष्ण ने मनुष्य रूप में जन्म लेने के बाद भी अपने जन्म के समय से ही कई अद्भुत चमत्कार दिखाने शुरू कर दिए थे जबकि भगवान राम ने श्री विष्णु का अवतार होते हुए भी रावण वध हेतु वानरों की सहायता ली। गौतम ऋषि के श्राप से देवी अहिल्या को मुक्त करने वाले राम जब अयोध्या लौटते हैं तो अयोध्या के लोग दीपोत्सव मानते हैं लेकिन वहीं दूसरी ओर अपने सौ पुत्रों की मृत्यु से आहत गांधारी के श्राप से कृष्ण अपनी द्वारका नगरी को नहीं बचा पाते, ऐसी मान्यता है कि इसी श्राप के प्रभाव से द्वारका हर युग में समुद्र में समा जाती है और यही डूबी हुई नगरी आज की द्वारका के समीप बेट द्वारका के नाम से प्रसिद्द है जहाँ समुद्र में एक प्राचीन विकसित नगर के अवशेष पाए गए हैं। आपमें से कइयों के मन में शायद ये विचार चल रहा होगा कि श्रीराम को गृहस्थ जीवन का सुख नहीं मिला और श्रीकृष्ण ने अपनी समस्त रानियों के साथ गृहस्थ जीवन का आनंद उठाया , जहाँ प्रभु श्रीराम गृहस्थ होकर भी गृहस्थ जीवन के बंधनों से मुक्त दिखाई पड़ते हैं वहीँ श्रीकृष्ण ने तो मथुरा से लेकर द्वारका तक सबको अपनी माया में बांध रखा है लेकिन फ़िर भी मेरे विचार में श्रीराम सांसारिक माया से विरक्त नहीं हैं जबकि श्रीकृष्ण मुझे संसार के रिश्ते-नातों के प्रति निर्मोही दिखाई पड़ते हैं। ऐसा मुझे इसलिए लगता है क्योंकि रावण द्वारा सीता जी के हरण के पश्चात् श्रीराम किसी भी साधारण मनुष्य की तरह ही अपनी पत्नी के वियोग में संताप करते हैं जबकि दूसरी ओर श्रीकृष्ण सभी गोकुल वासियों और गोपियों को अपने विरह में छोड़कर मथुरा आ जाते हैं और फ़िर कभी वापिस नहीं जाते बल्कि उद्धव जी से गोपियों के लिए सन्देश भी भिजवाते हैं कि वे उन्हें भूल जाएं। फ़िर आगे चलकर श्रीकृष्ण महाभारत के युद्ध में भी अर्जुन को गीता का यही उपदेश देते हैं कि "मनुष्य शरीर नश्वर है केवल आत्मा अमर है इसलिए हे पार्थ! तू सांसारिक रिश्तों की इस माया से निकलकर अधर्म के विरुद्ध धर्म की इस लड़ाई का प्रतिनिधित्व कर। " श्री सीता-राम के वैवाहिक जीवन का दुखद अंत होने के बावजूद उनकी प्रेम कहानी आदर्श है जबकि श्री राधा-कृष्ण का नाम एक अधूरी प्रेम कहानी का पर्याय है किंतु राधा-कृष्ण का पवित्र प्रेम किसी भी सांसारिक रिश्ते की मर्यादा में बांधा नहीं जा सकता क्योंकि उस प्रेम की कोई थाह नहीं पा सकता।
रामायण मूल रूप से दक्षिण भारत की कथा मानी जाती है और महाभारत उत्तर भारत की, लेकिन जहाँ एक तरफ उत्तर भारत के मंदिरों में विष्णु भगवान के राम और कृष्ण अवतारों की पूजा होती है वहीं दक्षिण भारत के अधिकांश मंदिरों में इन अवतारों की बजाय श्री विष्णु की ही अलग-अलग रूपों में पूजा की जाती है जिन्हें आंध्र प्रदेश में तिरुपति बालाजी तो केरल में पद्मनाभ स्वामी के नाम से जाना जाता है।
संक्षेप में कहें तो श्रीराम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं तो श्रीकृष्ण की लीलाएं सारी परंपराओं और मर्यादाओं के दायरे से परे हैं ; श्रीराम सदैव धर्म के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते हैं तो श्रीकृष्ण कर्म के मार्ग पर.. और मनुष्य का कर्म ही उसका धर्म है। श्रीमदभागवत गीता विश्व का एकमात्र ऐसा धार्मिक ग्रंथ है जो किसी देवी-देवता की स्तुति या उनके चमत्कारों की कथा से बढ़कर निरपेक्ष रूप से मनुष्य को केवल और केवल अपने कर्म करने की शिक्षा देता है। आज समस्त भौतिक सुख-सुविधाओं के होते हुए भी मनुष्य के जीवन में नैराश्य और नकारात्मकता हावी होती जा रही है, विश्व की एक बड़ी आबादी मानसिक अवसाद से ग्रसित है, ऐसे में विभिन्न धर्म-समुदाय की सीमाओं से परे जाकर कर्म-प्रधान ग्रंथ गीता सम्पूर्ण मानव जाति के लिए भारत की एक अनमोल भेंट है।
"कर्मण्ये वाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन " अर्थात तेरा कर्म करने में ही अधिकार है , उसके फलों में कभी नहीं.. जीवन को चलायमान रखने के लिए ये वाक्य निःसन्देह ही संजीवनी बूटी के समान है।
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