इधर आंध्र के मुख्यमंत्री सरकार बनाने के लिए दिल्ली में नेताओं के घरों के चक्कर लगाते रह गए और उधर वहां की जनता ने उनकी सरकार का तख़्तापलट कर दिया । इस महामिलावटी महागठबन्धन के हारने की शायद ये भी एक वजह रही कि जनता को विश्वास में लेने के बजाय ये एक-दूसरे को विश्वास में लेने में वक़्त ज़ाया करते रहे और भाजपा ज़मीन पर जनता के बीच अपनी पकड़ मज़बूत करने में लगी रही। महागठबंधन में शामिल सभी क्षत्रपों को वंशवाद, जातिवाद और तुष्टिकरण की अपनी राजनीति पर भरोसा था जिस पर मोदीजी की "सबका साथ,सबका विकास" वाली राजनीति भारी पड़ी। ये क्षेत्रीय दल कुछ विशेष जातियों और एक समुदाय विशेष को अपनी बपौती मानकर बैठे थे लेकिन इन चुनावों की सबसे बड़ी ख़ासियत ये रही कि इस बार लोगों ने सवर्ण,एससी-एसटी या ओबीसी बनकर नहीं बल्कि भारतीय बनकर वोट किया और राष्ट्रवाद के सामने जातिवाद जैसे मुद्दे गौण हो गए जो भारतीय लोकतंत्र में एक स्वर्णिम अध्याय जोड़ गया।
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