राज्यों के राष्ट्रीय स्तर पर बेहतर प्रतिनिधित्व की ज़रुरत ने राजनीति में बहुत सारे क्षेत्रीय दलों को जन्म दिया। इनमें से कुछ दल भाषाई प्रतिनिधित्व वाले हैं तो कुछ जातिगत। इन सभी क्षेत्रीय दलों में राष्ट्रीय स्तर के सिर्फ़ 1या2 नेता हैं लेकिन उनका क़द अपनी पार्टी से भी इतना बड़ा है कि कई दफ़ा ये सरकार बनाने,गिराने और बचाने की भूमिका में निर्णायक सिद्ध होते हैं। हालांकि इनमें सिर्फ़ नीतीश कुमार और नवीन पटनायक जैसे अपवादों को छोड़कर अधिकांश अपनी हिंसात्मक, अलगाववादी और भ्रष्टाचारी प्रवृत्ति के कारण देश भर में कुख्यात हैं। चाहे वो महाराष्ट्र की शिवसेना हो या यूपी की समाजवादी पार्टी,चाहे बंगाल की तृणमूल कांग्रेस हो या तमिलनाडु की अन्नाद्रमुक...इन पार्टियों ने अपने-अपने राज्य में सिवाय गुंडागर्दी फ़ैलाने के और कुछ नहीं किया है। मुझे व्यक्तिगत तौर पर लगता है कि ये क्षत्रप राष्ट्रीय एकता के लिए कांग्रेस पार्टी से भी ज़्यादा ख़तरनाक हैं। इनकी नीतियां अलगाववादी और विभाजनकारी हैं और सत्ता के लिए ये लोग ख़ून-खराबे से भी परहेज़ नहीं करते। ये लगातार हिन्दू समाज को भाषा और जातिगत आधार पर तोड़ने का काम कर रहे हैं। लेकिन इस चुनाव में हमने जातिगत मतभेदों को भुलाकर जिस तरह भारतीय बनकर वोट किया,इससे इन क्षेत्रीय पार्टियों का अस्तित्व ख़तरे में पड़ गया है ।
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