Monday, 10 June 2019

Bhartiya janta party

भारतीय जनता पार्टी जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है कि ये सम्पूर्ण भारतीय जनता की पार्टी है भले ही वो किसी भी जाति,धर्म या समुदाय से हो। इसीलिये हमारे प्रधानमंत्री जी ने इस बार नारा दिया है "सबका साथ,सबका विकास और सबका विश्वास"। इस पार्टी ने वाक़ई जनता का विश्वास जीता है तभी एक समय 2सीटों की जीत से शुरुआत करने वाली पार्टी ने आज अकेले अपने दम पर 300+ सीटें जीतकर पिछले चुनाव का अपना ही रिकॉर्ड तोड़ दिया है। लेकिन ये जीत रातोंरात हुए किसी चमत्कार का नतीजा नहीं है जैसा आम आदमी पार्टी के साथ दिल्ली में हुआ,ये जीत नतीजा है 34साल के अथक परिश्रम,संयम,लगन और धैर्य का...जहां आजकल पार्टी अस्तित्व में आते ही उसके जनक साम,दाम,दंड या भेद किसी भी प्रकार से बस सत्ता में शामिल होने को लालायित रहते हैं वहीं भाजपा ने दशकों से सत्ता पर क़ाबिज़ कांग्रेस के ख़िलाफ़ अपनी राजनीति की शुरुआत की और सत्ता पाने के लिए कभी कांग्रेस से हाथ नहीं मिलाया और देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी के रूप में ही काम करती रही।अगर समय रहते भाजपा का उदय न हुआ होता तो हम आज भी एक ही पार्टी की ग़ुलामी कर रहे होते लेकिन भाजपा के आने से देश में विपक्ष की राजनीति अस्तित्व में आई और परिवार केंद्रित सत्ता का अंत हुआ। सालों तक संसद में कांग्रेस को कोई चुनौती देने वाला नहीं था,ज़ाहिर है जिस देश में अगर विपक्ष के रूप में कोई लगाम कसने वाला न हो तो सत्ता पक्ष का घोड़ा अनियंत्रित होकर मनमानियां करने लगता है और यही हुआ इंदिरा गांधी के कार्यकाल में। भाजपा के पितृ-पुरुष अटल बिहारी वाजपेयीजी ने एक ऐसे परिवार के बड़े नेताओं की नीतियों पर सवाल उठाने शुरू किए जिन्हें लोग उस समय देवता की तरह पूजते थे। वे अपने राजनीतिक जीवन में ज़्यादातर समय विपक्ष के नेता रहे लेकिन फ़िर भी वो लोगों में कितने अधिक लोकप्रिय थे ये हमने उनकी अंतिम यात्रा में देखा। आज अटलजी स्वर्ग में बहुत ख़ुश होंगे क्योंकि उन्होंने वर्ष1997 में भाजपा के 300सीटें जीतने की जो भविष्यवाणी की थी वो आज सच हो चुकी है।

Namo again

आज मोदीजी दोबारा विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश के प्रधानमंत्री के रूप में शपथ लेने जा रहे हैं। पहली बार कोई ग़ैर-कांग्रेसी सरकार अपना एक कार्यकाल पूरा करने के बाद दोबारा पूर्ण बहुमत से सत्ता में लौटी है और भी कई कीर्तिमान इस चुनाव में मोदी-शाह की जोड़ी ने बनाये हैं। इस शपथ ग्रहण समारोह में कई विदेशी मेहमान भी आकर्षण का केंद्र होंगे,इसके साथ ही भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष स्तर तक के नेताओं को भी न्यौता भेजा गया है। लेकिन इस समारोह की सबसे बड़ी ख़ासियत है कि पहली बार किसी शपथ ग्रहण समारोह में उन सैकड़ों कार्यकर्ताओं के परिजन भी शामिल होंगे जो चुनावी हिंसा में मारे गए थे। कल से बंगाल के रेल्वे स्टेशनों पर दिल्ली जाने वालों की लंबी कतारें लगी हुई हैं। पिछले आम चुनाव में बंगाल में ख्यात गायक बाबुल सुप्रियो की एक सीट से लेकर इस चुनाव में भाजपा के 18सीट लाने के बीच का दौर ऐसे सैंकड़ों भाजपा कार्यकर्ताओं के ख़ून से रंगा हुआ है। जैसे यूपी की जनता बुआ-बबुआ के 15साल के शासन से त्रस्त हो चुकी थी, ठीक वैसे ही शांतिप्रिय और कलाप्रेमी बंगाली समुदाय भी दीदी की तुष्टिकरण की नीतियों से त्रस्त हो चुका था और आखिरकार उसे अपनी विरासत की रक्षा करने के लिए एकजुट होना पड़ा और बंगाल के इतिहास में शायद पहली बार हमने जय श्रीराम का नारा लगाते भगवाधारियों को देखा। लेकिन ये आश्चर्य की बात है कि इतनी सारी राजनीतिक हत्याओं पर सारा मीडिया,अवार्ड वापसी गैंग यहां तक कि विभिन्न मानवाधिकार संगठन भी ख़ामोश रहे। लेकिन आज जश्न के मौके पर प्रधानमंत्री अपने इन बेनाम शहीदों को नहीं भूले और उनके परिवार वालों को न्योता भेजकर ये बता दिया कि पार्टी इन परिवारों के साथ हमेशा खड़ी है।

क्षेत्रीय दल और लोकतंत्र

 राज्यों के राष्ट्रीय स्तर पर बेहतर प्रतिनिधित्व की ज़रुरत ने राजनीति में बहुत सारे क्षेत्रीय दलों को जन्म दिया। इनमें से कुछ दल भाषाई प्रतिनिधित्व वाले हैं तो कुछ जातिगत। इन सभी क्षेत्रीय दलों में राष्ट्रीय स्तर के सिर्फ़ 1या2 नेता हैं लेकिन उनका क़द अपनी पार्टी से भी इतना बड़ा है कि कई दफ़ा ये सरकार बनाने,गिराने और बचाने की भूमिका में निर्णायक सिद्ध होते हैं। हालांकि इनमें सिर्फ़ नीतीश कुमार और नवीन पटनायक जैसे अपवादों को छोड़कर अधिकांश अपनी हिंसात्मक, अलगाववादी और भ्रष्टाचारी प्रवृत्ति के कारण देश भर में कुख्यात हैं। चाहे वो महाराष्ट्र की शिवसेना हो या यूपी की समाजवादी पार्टी,चाहे बंगाल की तृणमूल कांग्रेस हो या तमिलनाडु की अन्नाद्रमुक...इन पार्टियों ने अपने-अपने राज्य में सिवाय गुंडागर्दी फ़ैलाने के और कुछ नहीं किया है। मुझे व्यक्तिगत तौर पर लगता है कि ये क्षत्रप राष्ट्रीय एकता के लिए कांग्रेस पार्टी से भी ज़्यादा ख़तरनाक हैं। इनकी नीतियां अलगाववादी और विभाजनकारी हैं और सत्ता के लिए ये लोग ख़ून-खराबे से भी परहेज़ नहीं करते। ये लगातार हिन्दू समाज को भाषा और जातिगत आधार पर तोड़ने का काम कर रहे हैं। लेकिन इस चुनाव में हमने जातिगत मतभेदों को भुलाकर जिस तरह भारतीय बनकर वोट किया,इससे इन क्षेत्रीय पार्टियों का अस्तित्व ख़तरे में पड़ गया है ।

अमेठी हत्याकांड

अमेठी में स्मृति ईरानी के कार्यकर्ता की हत्या इस बात का प्रमाण है कि विपक्षी दल से अपनी ये हार बर्दाश्त नहीं हो रही है और इस तरह के हथकंडे अपनाकर अमेठी की जनता को डराने की कोशिश हो रही है। इन विपक्षी राजनीतिक दलों और नेताओं का यही चरित्र है। इनकी एक नेता ने एक बार बहुत ही हास्यास्पद बयान में ये कहा था कि लोकतंत्र में हमेशा कमज़ोर सरकार होनी चाहिए,एक नेता टोंटी चोर और मंदिरों से लाउडस्पीकर हटवाने को लेकर कुख्यात हैं, एक चारा चोर हैं,एक नेता ने लेडी डॉन बनकर बंगाल में सरेआम क़त्लेआम मचा रखा है...तो जनता भी इतनी बेवकूफ़ नहीं है कि ऐसे भ्रष्टाचारियों और क़ातिलों के हाथ में देश सौंप दे। बहरहाल अमेठी हत्याकांड की उच्चस्तरीय जांच होनी चाहिए क्योंकि इसमें राष्ट्रीय स्तर के नेताओं के भी शामिल होने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता।

आज का मुसलमान

अभी तक ये आम धारणा थी कि मुस्लिम समाज के लोग भाजपा को वोट नहीं देते हैं और मोदीजी के प्रधानमंत्री बनने से उनमें डर का माहौल है। दरअसल डर मुस्लिमों में नहीं,मोदीजी के विरोधियों में था। सारे मोदी विरोधी महामिलावटी महागठबंधन के नेता मुस्लिमों के वोट बैंक और जातीय समीकरण के आधार पर अपनी जीत लगभग पक्की मानकर बैठे थे शायद इसीलिए वो ज़मीनी स्तर पर जनता की नब्ज़ भांपने में नाकामयाब रहे।वहीं आज का समझदार और शिक्षित मुसलमान ये बहुत अच्छे से समझ चुका है कि धर्म को ख़तरा बताकर इन राजनीतिक दलों द्वारा कितने दशकों से उसे छला जा रहा है। आज़ादी के बाद से ही सत्तासीन पार्टी द्वारा मुस्लिमों के मन में ये भावना भरी जाती रही कि वो भारत में सुरक्षित नहीं हैं और ख़ुद को मुसलमानों के मददगार के रूप में पेश किया जाता रहा। इसका असर ये हुआ कि मुस्लिम समाज की शिक्षा,रोज़गार और अन्य मूलभूत सुविधाओं की कमी की तरफ़ ख़ुद मुसलमानों ने भी कभी ग़ौर नहीं किया औऱ न ही कभी कोई आवाज़ उठाई। मुस्लिम हमेशा इसी डर में जीते रहे कि कहीं उनका धार्मिक अस्तित्व ख़तरे में न पड़ जाए और इस तरह वो धर्म से आगे कभी सोच ही नहीं पाए और सिर्फ़ एक मज़हबी वोट बैंक की तरह इस्तेमाल होते रहे। लेकिन एक तरफ़ जहां भाजपा सरकार ने तीन तलाक़ बिल लाकर मुस्लिम महिलाओं के हक़ की आवाज़ उठाई,मेधावी मुस्लिम विद्यार्थियों के लिए मुफ़्त कोचिंग की योजना और अल्पसंख्यकों के लिए बजट में लगभग 1000करोड़ की बढ़ोत्तरी करके उन्हें देश की मुख्यधारा में लाने का प्रयास किया,वहीं दूसरी तरफ़ पिछले 5सालों में कोई भी बड़ा हिन्दू-मुस्लिम दंगा नहीं होने दिया जिससे मुसलमानों में सुरक्षा की भावना बढ़ी। शायद यही वजह है कि बहुत कम प्रतिशत ही सही लेकिन इस बार यूपी और बंगाल के मुस्लिमों ने भी मोदी के नाम पर वोट दिया है।

हिंदुओं का पुनर्जागरण

इन दिनों इंदौर में अभ्यास मंडल में व्याख्यान माला का कार्यक्रम चल रहा है जिसमें रोज़ किसी न किसी ज्वलंत मुद्दे पर बोलने के लिए देश के चुनिंदा बुद्धिजीवियों को आमंत्रित किया जाता है। ज़ाहिर है इन्हें सुनने वाले श्रोता भी बुद्धिजीवी ही होंगे। लेकिन पिछले दो दिनों से मैं अख़बार में इस कार्यक्रम में हंगामा होने की ख़बर पढ़ रही हूं। पहले पूर्व आईएएस और समाजसेवी श्री हर्ष मंदर के भाषण पर इंदौर के लोगों का ग़ुस्सा फूट पड़ा और कल वैज्ञानिक एवं कवि श्री गौहर रज़ा के भाषण पर। अब आप सोच रहे होंगे कि ये अचानक इंदौर की समझदार जनता को क्या हो गया? दरअसल इन बुद्धिजीवियों ने जाने-अनजाने में अपने व्याख्यान में सनातन धर्म पर उंगली उठा दी...हर्ष मंदर जी सामाजिक समरसता पर बोलते-बोलते मॉब लिंचिंग पर चले गए और हिंदुओं को लिंचिंग का दोषी ठहरा दिया और गौहर रज़ा जी ने एक क़दम आगे निकलते हुए प्रधानमंत्री जी के उस कथन का मज़ाक उड़ा दिया जिसमें उन्होंने कहा था कि गणेश जी प्लास्टिक सर्जरी का सबसे अच्छा उदाहरण हैं। लिंचिंग वाली बात पर वहां मौजूद हमारे शहर के प्रबुद्धजनों ने इन बुद्धिजीवी महोदय से सवाल किया कि क्या कश्मीरी पंडितों का कत्लेआम लिंचिंग नहीं था और अगर था तो आप इस पर क्यों मौन हैं? दरअसल ये मुट्ठी भर तथाकथित बुद्धिजीवी एक ऐसी मनघड़ंत विचारधारा के पोषक हैं जिसमें बहुसंख्यक समाज को सस्पेक्ट और अल्पसंख्यक समाज को विक्टिम की तरह पेश करके एक वर्ग विशेष के तुष्टिकरण की नीति अपनाई जाती रही है और देश पर 60साल राज करने वाली एक पार्टी ने इसी काल्पनिक थ्योरी को अपने राजनीतिक हथियार की तरह इस्तेमाल किया, लेकिन आज मोदीजी के राष्ट्रवाद ने लोगों को पुनः जागरूक किया और लोगों को सनातन धर्म और अपने राष्ट्र के इतिहास पर पुनः गर्व करना सिखाया। 60साल के कांग्रेसी शासनकाल ने भारतीयों की मानसिकता ऐसी कर दी थी कि वे विदेशों की चकाचौंध से प्रभावित होकर अपनी संस्कृति का मज़ाक उड़ाया करते थे बिना उसकी वैज्ञानिक महत्ता को जाने, अपने रीति-रिवाजों का पालन करने में उन्हें शर्म महसूस होने लगी थी लेकिन वही लोग अब अपने देश,अपने धर्म और अपनी संस्कृति को अपमानित करने वालों के ख़िलाफ़ एकजुट होकर खड़े हो उठते हैं और इस बार का चुनाव इसका सबसे बड़ा उदाहरण है।

राष्ट्रवाद का युग

राष्ट्रवाद का युग 21वीं सदी का युग टेक्नोलॉजी का युग कहा जाता है,ये सदी जो आधुनिकता के चरम की सदी है,ये सदी जो संचार क्रांति की सदी है,ये सदी जो एकल परिवारों की सदी है,ये सदी जो पढ़े-लिखे उन नौजवानों की सदी है जो मल्टीनेशनल कंपनियों में इंजीनियर-मैनेजर बनकर करोड़ों का पैकेज पाते हैं और इसे ही अपने जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि समझते हैं लेकिन इन सबसे परे 21वीं सदी है राष्ट्रवाद के पुनरुत्थान की सदी... ये अपने आप में एक विरोधाभासी तथ्य है कि इस सदी के इतने आधुनिक लोग कट्टर राष्ट्रवादी कैसे बन गए? क्योंकि वामपंथियों द्वारा हमेशा से ये भ्रम फ़ैलाया जाता रहा है कि राष्ट्रवाद रूढ़िवादिता को बढ़ावा देता है और राष्ट्रवादी कभी प्रगतिशील विचारों वाले नहीं हो सकते। लेकिन ये आधुनिक युग का नया राष्ट्रवाद है जिसमें "वसुधैव कुटुंबकम" की भावना भी है और राष्ट्र के लिए ख़तरा बनने वालों को उनके घर में घुसकर मारने की ताक़त भी। आज भारत ही नहीं बल्कि समूचा विश्व राष्ट्रवाद की राह पर अग्रसर है। आज हर देश दूसरों की मदद करने से पहले अपने नागरिकों के हितों और सुरक्षा के लिए व्यवस्था करने की राष्ट्रवादी नीति का समर्थक है। अमेरिकी राष्ट्रपति तो अपनी इसी नीति के चलते हमेशा मीडिया और कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग के निशाने पर रहते हैं। आज यूरोप का हर देश शरणार्थियों को अपने देश में घुसने से रोकने के लिए कड़े क़ानून बना रहा है। आज के दौर में जब ISIS जैसे आतंकवादी संगठन लगातार अपना विस्तार कर रहे हैं और अब ये भारत में भी अपने पैर जमाने की कोशिश कर रहे हैं, ऐसे नाज़ुक दौर में हमें मोदीजी जैसे एक सशक्त प्रधानमंत्री की ही ज़रूरत थी न कि अवैध बांग्लादेशी घुसपैठियों की पैरवी करने वाले,आतंकवादियों को "जी" कहने वाले और उनकी मौत पर मातम मनाने वाले भ्रष्ट नेताओं की....

बुझती हुई मशाल

जी हां, ये बुझती हुई मशाल है आम आदमी पार्टी की जो कुछ साल पहले आम आदमी की आशाओं के साथ रोशन हुई थी, करोड़ों आशाएं ईमानदारी की,आशाएं वोट बैंक से परे तटस्थता की राजनीति की,आशाएं कांग्रेस-भाजपा से इतर आम आदमी का संसद में प्रतिनिधत्व करने वाली एक पार्टी की लेकिन सत्ता के लालच ने लोगों की ये सारी आशाएं धूमिल कर दीं। एक तरफ़ कुमार विश्वास और योगेंद्र यादव जैसे प्रतिभाशाली लोग इस पार्टी से दूर हुए और दूसरी तरफ़ जनता का इस पार्टी से मोह भंग होता गया, क्योंकि जब आप एक सिद्धांत को पकड़कर उस पर चलना शुरू करते हैं और लाखों लोगों के प्रेरणा-स्रोत बनते हैं तब आपसे उम्मीद की जाती है कि कैसी भी परिस्थिति में आप अपने सिद्धान्तों से समझौता नहीं करेंगे। लेकिन अरविंद केजरीवाल ने लोगों का ये भ्रम तभी तोड़ दिया जब पहली बार के दिल्ली के चुनाव में पूर्ण बहुमत न मिलने पर उन्होंने कांग्रेस से समर्थन लेकर सरकार बनाने की पेशकश कर दी। इस घटना ने बता दिया कि आप सिद्धांतवादी होने का सिर्फ़ ढोंग कर रहे हैं क्योंकि अगर सचमुच ऐसा होता तो आप जिस भ्रष्टाचारी पार्टी का विरोध करके सत्ता में आये उसी से हाथ मिलाने की पेशकश न करते। इस वाक़ये ने साबित कर दिया कि केजरीवाल कोई सिद्धांतवादी नहीं बल्कि दूसरे नेताओं की तरह वे भी अवसरवादी हैं और रही-सही कसर केजरीवाल की महागठबंधन में शामिल होकर सरकार में शामिल होने की छटपटाहट ने पूरी कर दी,वो भी तब जब महागठबंधन का कोई भी नेता आप से गठबंधन करने को तैयार ही नहीं था।

Smriti Irani

"कौन कहता है आसमान में सुराख नहीं हो सकता,एक तबियत तो पत्थर से उछालो यारों" ये कहावत शायद स्मृति ईरानी के लिए ही बनाई गई थी क्योंकि जिस गांधी परिवार ने इस देश पर 60सालों तक राज किया, उस गांधी परिवार के राजकुमार के किले में सेंध लगाकर उसे उसकी गद्दी से बेदख़ल कर देना अपने आप में एक बहुत बड़ी उपलब्धि है। आज स्मृति ईरानी का नाम धैर्य,संयम,लगन और कठोर परिश्रम का पर्याय बन चुका है क्योंकि पिछला चुनाव हारने के बाद भी जिस तरह से वो पिछले 5साल में अमेठी में जाती रहीं और राहुल गांधी की नाक के नीचे ही वहां की जनता में अपनी पैठ बनाती रहीं ये निश्चित ही क़ाबिले-तारीफ़ है। पार्टी ने जो उन पर भरोसा दिखाया उस पर वो 100% खरी उतरीं और पार्टी द्वारा दी गयी ज़िम्मेदारी को उन्होंने अपने लिए एक सुनहरे अवसर में बदल दिया। सोने का चम्मच लेकर पैदा हुए इस निकम्मे राजकुमार को हराने और अमेठी से भगाने के लिए इतिहास स्मृति ईरानी को हमेशा याद रखेगा।

हमारे प्रधानमंत्री

दशकों पहले किसी कांग्रेसी ने नारा दिया था "India is Indira & Indira is India" और इस नारे के इंदिरा पर साइड इफ़ेक्ट ये हुए कि उन्होंने देश में आपातकाल लागू कर दिया,लेकिन इसके बावजूद वो देश के इतिहास की सबसे प्रभावशाली प्रधानमंत्री बनी रहीं जिसकी मुख्य वजह पाकिस्तान से बांग्लादेश का विभाजन था। श्रीमती गांधी का राजनीतिक क़द भले ही बहुत बड़ा रहा हो लेकिन अगर बात नैतिक मूल्यों और एक साफ़ छवि वाले प्रधानमंत्री की करें तो लाल बहादुर शास्त्रीजी और अटल बिहारी वाजपेयीजी का कोई सानी नहीं है। वाजपेयी जी कितने सरल हृदय और सम्मानीय नेता थे इस बात का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि विरोधी भी उन्हें बुरा नहीं बोल पाते थे वहीं इंदिराजी ने अपने विरोधियों को कुचलने के लिए आपातकाल का सहारा लिया। लेकिन आज के दौर में मोदीजी इंदिराजी से भी बड़े नेता बनकर उभरे हैं। सबसे पहली उनकी ईमानदार छवि जिसकी बानगी हमें उनके भाइयों के साधारण जीवन-स्तर में देखने को मिलती है, उनकी तेज़-तर्रार छवि जिससे पाकिस्तान भी थर-थर कांपता है लेकिन फ़िर भी वे विरोधियों के सारे ज़ुबानी हमले सहते हैं,उनकी वाकपटुता जिसे सुनने उनकी सभा में लाख़ों की भीड़ उमड़ पड़ती है,उनका कूटनीतिक कौशल जिसके चलते आखिरकार न चाहते हुए भी चीन को भी वैश्विक पटल पर हमारा साथ देना पड़ा और लोगों के बीच उनकी ज़बरदस्त लोकप्रियता ऐसी कि प्रियंका गांधी के रोड शो में कई जगह लोग मोदी-मोदी के नारे लगा रहे थे,ऐसा क़द्दावर व्यक्तित्व कि जिस अमेरिका ने कभी उन्हें वीसा देने से मना किया था उसने ख़ुद उन्हें आमंत्रित किया और जमकर ख़ातिरदारी की। ऐसे मेहनती,कर्मठ और जुझारू प्रधानमंत्री के नेतृत्व में हमारा देश पुनः विश्व-गुरु बनने के मार्ग पर अग्रसर है।

सबका साथ,सबका विकास

इधर आंध्र के मुख्यमंत्री सरकार बनाने के लिए दिल्ली में नेताओं के घरों के चक्कर लगाते रह गए और उधर वहां की जनता ने उनकी सरकार का तख़्तापलट कर दिया । इस महामिलावटी महागठबन्धन के हारने की शायद ये भी एक वजह रही कि जनता को विश्वास में लेने के बजाय ये एक-दूसरे को विश्वास में लेने में वक़्त ज़ाया करते रहे और भाजपा ज़मीन पर जनता के बीच अपनी पकड़ मज़बूत करने में लगी रही। महागठबंधन में शामिल सभी क्षत्रपों को वंशवाद, जातिवाद और तुष्टिकरण की अपनी राजनीति पर भरोसा था जिस पर मोदीजी की "सबका साथ,सबका विकास" वाली राजनीति भारी पड़ी। ये क्षेत्रीय दल कुछ विशेष जातियों और एक समुदाय विशेष को अपनी बपौती मानकर बैठे थे लेकिन इन चुनावों की सबसे बड़ी ख़ासियत ये रही कि इस बार लोगों ने सवर्ण,एससी-एसटी या ओबीसी बनकर नहीं बल्कि भारतीय बनकर वोट किया और राष्ट्रवाद के सामने जातिवाद जैसे मुद्दे गौण हो गए जो भारतीय लोकतंत्र में एक स्वर्णिम अध्याय जोड़ गया।

जनता का ग़ुस्सा

मध्यप्रदेश और राजस्थान में कांग्रेस की सरकार बने जुम्मा-जुम्मा 6महीने भी नहीं हुए हैं और ऐसा लग रहा है जैसे इन प्रदेशों की जनता ने इस आम चुनाव में भाजपा को प्रचंड बहुमत देकर पश्चाताप किया हो। मध्यप्रदेश में कांग्रेस सरकार ने आते ही तानाशाही रवैया अख्तियार करते हुए विभिन्न विभागों के बेक़सूर सरकारी कर्मचारियों पर एकतरफा कार्यवाही करना शुरू कर दिया। जहां हमारे पूर्व मुख्यमंत्री एक किसान थे जो प्रदेश की सभी महिलाओं के भाई बनकर हम सबके मामा कहलाते थे वहीं वर्तमान मुख्यमंत्री एक उद्योगपति हैं जिनका आचार-व्यवहार भी उद्योगपति जैसा ही है,आसान भाषा में कहें तो हमारे वर्तमान सीएम और पूर्व सीएम की जनता के बीच लोकप्रियता में ज़मीन-आसमान का अंतर है। हमारे पूर्व सीएम आज भी प्रदेश में जहां कहीं जाते हैं तो लोग उनके सामने पछतावे के आंसू बहाने लगते हैं लेकिन वर्तमान सीएम महोदय इस मैदानी हक़ीक़त से मुंह मोड़कर अपनी झूठी क़र्ज़माफी का ही ढिंढोरा पीटते रहे जिसका नतीजा ये रहा कि प्रदेश के दो राजाओं की गद्दी भी छिन गयी।
पिछले आम चुनावों में कांग्रेस पार्टी की लोकतांत्रिक हार हुई थी और इस चुनाव में ये हार नैतिक हार में बदल गयी क्योंकि सर्जिकल स्ट्राइक हो या एयर स्ट्राइक, देश की अंतरिक्ष में ऊंची छलांग का प्रतीक मिशन शक्ति की सफ़लता हो या संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा मसूद अज़हर को वैश्विक आतंकी घोषित करवाने की भारत की कूटनीतिक सफ़लता... हर मौके पर कांग्रेस पार्टी अपनी ही सेना और अपने ही देश की सफ़लता का मखौल उड़ाती नज़र आई और चाहे देश विरोधी नारे लगाने वाले हों या पाकिस्तान समर्थित कश्मीरी अलगाववादी...हर जगह कांग्रेस पार्टी ऐसे देशद्रोही लोगों के समर्थन में खड़ी नज़र आई। सत्ता के लालच और वोट बैंक की राजनीति में ये लोग इतने अंधे हो गए कि इन्हें पता ही नहीं चला कि मोदी का विरोध करते-करते कब ये लोग भारत का विरोध करने लगे । शायद इसीलिए आज भारत की जनता ने लोकतंत्र के हथौड़े से इनके मुँह पर ऐसा तमाचा जड़ा है जिसकी गूंज कई दशकों तक सुनाई देगी।

लोकतंत्र का महापर्व

आज एक बार पुनः साबित हो गया कि हमारे देश का लोकतंत्र कितना मज़बूत है। शायद यही वजह रही कि जनता ने एक ऐसे व्यक्ति को प्रधानमंत्री के रूप में दोबारा अवसर देने का निर्णय लिया जिसके विरोध में सारे बेईमान एक होकर लड़ रहे थे जिन्हें अप्रत्यक्ष रूप से पाकिस्तान का भी समर्थन प्राप्त था। ख़ुद को चौकीदार कहने वाले इस ईमानदार प्रधानमंत्री का खौफ़ भ्रष्ट विरोधियों में इस क़दर बैठा कि सारे चोर चौकीदार से लड़ने के लिए एक मंच पर इकट्ठा हो गए। लेकिन इन बेचारों ने कभी ये नहीं सोचा था कि इनकी यही हरकत जनता के सामने मोदीजी की ईमानदारी की गवाही बन जाएगी और अब इतनी करारी शिकस्त के बाद ये इस हार का विश्लेषण करने की जगह अपनी हार का ठीकरा बेचारी निर्जीव ईवीएम पर फोड़ेंगे। शायद सदियों पहले किसी ने भविष्य देख लिया होगा तभी उसने आज के चुनावी परिप्रेक्ष्य के बारे में इतनी सटीक कहावत बनाई कि "नाच न जाने आंगन टेढ़ा"☺️

Thursday, 23 May 2019

Rani Laxmibai

D queen of Jhansi Rani Laxmibai is a true inspiration for all the women who fought bravely against British army with a limited no of resources. At d time wn most of the Indian rulers like Gwalior maharaj Scindia were sitting idle in shelter of East India company, Rani Laxmibai a fearless lady ws utterly involved in d Indian rebellion for freedom in 1857 against the British rule. She was a wife,a mother,a widow,a queen and a freedom fighter who fought & died for the nation. She inspires all d ladies to raise ur voice against any kind of injustice whether it's been in ur home, in ur family, in ur office or in d society as well. Don't b afraid of such coward men as it's scientifically proven dt either physically, mentally or emotionally women are far more stronger than men so jst stop keep sitting silent & b fearless like Mardaani Jhansi ki Rani Laxmibai.

मैं हिन्दू हूँ

मैं ब्राम्हण हूं जब मै पढता हूँ और पढ़ाता हूँ मैं क्षत्रिय हूँ जब मैं अपने परिवार की रक्षा करता हूँ मैं वैश्य हूँ जब मैं अपने घर का प्रबंधन करता हूँ मैं शूद्र हूँ जब मैं अपना घर साफ रखता हूँ ये सब मेरे भीतर है इन सबके सयोंजन से मै बना हूँ क्या मेरे अस्तित्व से किसी एक क्षण भी इन्हे अलग कर सकते है क्या किसी भी जाति के हिन्दू के भीतर से ब्राहमण,क्षत्रिय ,वैश्य या शुद्र को अलग कर सकते है? वस्त्तुतः सच यह है कि हम सुबह से रात तक इन चारो वर्णो के बीच बदलते रहते हैं। मुझे गर्व है कि मैं एक हिंदू हूँ मेरे टुकड़े टुकड़े करने की कोई कोशिश न करे।
बीते शनिवार रविंद्र नाट्यगृह में मुझे लगभग 10महीने बाद आध्यात्मिक गुरु और विश्व भर में हनुमान चालीसा के द्वारा ध्यान का प्रचार-प्रसार करने वाले एवं उज्जयिनी में "शांतम" के संस्थापक परम ज्ञानी पंडित विजयशंकर मेहता जी को पुनः सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। पंडितजी के व्याख्यान का विषय था "संबंधों में समरसता के सूत्र", व्याख्यान की शुरुआत में संबंधों या रिश्तों का महत्व बताते हुए पंडितजी कहते हैं कि संबंध बनाना और बिगाड़ना तो बहुत सरल है लेकिन संबंध निभाना सबसे कठिन काम है,ख़ासकर आज के समय में जब हमारे रिश्तों में पारदर्शिता का अभाव है। आज के युग में पारदर्शिता की जगह संदेह ने ले ली है। पंडितजी ने बताया कि रिश्ते चार तरह से बनाये जाते है- पहला शरीर से,दूसरा मन से,तीसरा हृदय से और चौथा आत्मा से। पंडितजी कहते हैं कि शरीर से बनाये रिश्ते में मस्ती होना चाहिए,मन के रिश्ते में भोलापन, हृदय के रिश्ते में निर्भयता होनी चाहिए लेकिन इन सबसे महत्वपूर्ण रिश्ता वो है जो आत्मा से जुड़ा होता है और वो आत्मा से इसलिए जुड़ा होता है क्योंकि इस रिश्ते में विश्वास होता है जो किसी भी मज़बूत रिश्ते के लिए नींव की तरह होता है।